SHIKSHAN SANSHODHAN  [ ISSN(O): 2581-6241 ]  Peer-Reviewed, Referred, Indexed Research Journal. Impact Factor :   6.831

SHIKSHAN SANSHODHAN [ ISSN(O): 2581-6241 ] Peer-Reviewed, Referred, Indexed Research Journal. Impact Factor : 6.831

Research Paper, Article Publication in Hindi, Gujarati, Sanskrit, English and other National Languages.

Shikshan Sanshodhan :  Journal of Arts, Humanities and Social Sciences  

शिक्षण संशोधन  :  कला, मानविकी और सामाजिक विज्ञान जर्नल

Monthly, Peer-Reviewed, Refereed, Indexed Research

Journal run by ‘Research Culture Society’  (International Scientific Research Organization).

Publication in Asian and European Countries Languages :   Multilingual Publications.  

Impact Factor :  6.831 

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कैसे एक शोधपत्र (Research Paper) लिखें

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स्कूल की ऊंची कक्षाओं में पढ़ने के दौरान और कॉलेज पीरियड में हमेशा ही, आपको शोध-पत्र तैयार करने के लिए कहा जाएगा। एक शोध-पत्र का इस्तेमाल वैज्ञानिक, तकनीकी और सामाजिक मुद्दों की ख़ोज-बीन और पहचान में किया जा सकता है। यदि शोध-पत्र लेखन का आपका यह पहला अवसर है, तो बेशक कुछ डरावना भी लग सकता है, पर मस्तिष्क को अच्छी तरह से संयोजित और एकाग्र करें, तो आप खुद के लिए इस प्रक्रिया को आसान बना सकते हैं। शोध-पत्र तो स्वयं नहीं लिख जाएगा, पर आप इस प्रकार से योजना बना सकते हैं, और ऐसी तैयारी कर सकते हैं कि लेखन व्यावहारिक रूप में खुद-ब-खुद जेहन में उतरता चला जाए।

अपने विषयवस्तु का चयन

Step 1 अपने आप से महत्वपूर्ण प्रश्न कीजिए:

  • आम तौर पर, वेबसाइट जिनके नाम के अंत में .edu, .gov, या .org होता है, ऎसी सूचनाएं रखती हैं जिन्हें इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसा इसलिए है कि ये वेबसाइट स्कूलों, सरकार या उन संगठनों की होती हैं जो आपके विषय से सम्बंधित हैं।
  • अपनी खोज का प्रश्न बार-बार बदलें ताकि आपके विषय पर अलग-अलग तरह के खोज परिणाम मिलें। अगर कुछ भी मिलता नज़र न आये तो ऐसा हो सकता है कि आपकी खोज का प्रश्न अधिकाँश लेखों के शीर्षक से मेल नहीं खा रहा है जो आपके विषय पर हैं।

Step 5 एकेडमिक डेटाबेस का इस्तेमाल कीजिये:

  • ऐसे डेटाबेस ढूंढ़िए जो आपके विषय को ही सम्मिलित करते हों। उदहारण के लिए PsycINFO एक ऐसा डेटाबेस है जो कि केवल मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के क्षेत्र में ही विद्वानों द्वारा किये काम को सम्मिलित करता है। एक सामान्य खोज के मुकाबले यह आपको अपने अनुरूप शोध सामग्री पाने में मदद करेगा। [२] X रिसर्च सोर्स
  • पूछताछ के एकाधिक खोज-बॉक्स या केवल केवल एक ही प्रकार के स्रोत वाले आर्काइव के साथ अधिकाँश अकादमिक डेटाबेस आपको ये सुविधा देते हैं कि आप बेहद विशिष्ट सूचना मांग सकें (जैसे केवल जर्नल आलेख या केवल समाचार पत्र)। इस सुविधा का लाभ उठाकर जितने अधिक खोज बॉक्स आप इस्तेमाल कर सकते हैं उतना करें।
  • अपने विभाग के पुस्तकालय जाएँ और लाइब्रेरियन से अकादमिक डेटाबेस, जिनकी सदस्यता ली गयी है, की पूरी सूची और उनके पासवर्ड ले लें।

Step 6 अपने शोध में रचनात्मक हो जाएँ:

एक रूपरेखा का निर्माण

Step 1 किताब पर टीका-टिप्पणी,...

  • रूपरेखा बनाने और शोधपत्र लिखने का काम आखिरकार आसान करने के लिए टीका-टिप्पणी का काम गहनता से कीजिये। जिस चीज़ के महत्वपूर्ण होने का आपको ज़रा भी अंदेशा हो या जो आपके शोधपत्र में इस्तेमाल हो सकता है, उसकी निशानदेही कर लीजिए।
  • जैसे-जैसे आप अपने शोध में महत्वपूर्ण हिस्सों को चिन्हित करते जाएँ, अपनी टिप्पणी और नोट जोड़ते जाएँ कि इन्हें आप अपने शोध-पत्र में कहाँ इस्तेमाल करेंगे। अपने विचारों को लिखना जैसे-जैसे वे आते जाएँ, आपके शोधपत्र लेखन को कहीं आसान बना देगा और ऎसी सामग्री के रूप में रहेगा जिसे आप सन्दर्भ के लिए फिर-फिर इस्तेमाल कर सकें।

Step 2 अपने नोट्स को सुनियोजित करें:

  • हर उद्धरण या विषय जिसे आपने चिन्हित किया है उसे अलग-अलग नोट कार्ड पर लिखने की कोशिश कीजिए। इस तरह से आप अपने कार्डों को मनचाहे ढंग से पुनर्व्यवस्थित कर सकेंगे।
  • अपने नोट का रंगों में कोड बना लें, ताकि वे आसान हो जाएँ। अलग-अलग स्रोतों से जो भी नोट आप ले रहे हैं, उन्हें सूची बद्ध कर लें, और फिर सूचना के अलग-अलग वर्गों को अलग-अलग रंगों में चिन्हित कर लें। उदाहरण के लिए, जो कुछ भी आप किसी विशेष किताब या जर्नल से ले रहे हैं उन्हें एक कागज़ पर लिख लें ताकि नोट्स को सुगठित किया जा सके, और फिर जो कुछ भी चरित्रों से सम्बंधित है उसे हरे से चिन्हित करें, कथानक से जुड़े सबकुछ को नारंगी रंग में चिन्हित करें, आदि-आदि।

Step 3 सन्दर्भों का पन्ना बना लें:

  • एक तार्किक शोधपत्र विवादित विषयों पर एक पक्ष लेता है और एक दृष्टिकोण के लिए तर्क प्रस्तुत करता है। मुद्दे पर एक तर्कसंगत प्रतिपक्ष के साथ बहस की जानी चाहिए।
  • एक विश्लेषणात्मक शोधपत्र किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर नए सिरे से दृष्टिपात करता है। विषय आवश्यक नहीं है कि विवादित हो, पर आपको अपने पाठकों को सहमत करना पड़ेगा कि आपके विचारों में गुणवत्ता है। यह महज आपके शोध से विचारों की उबकाई भर नहीं, बल्कि अपने उन विशिष्ट अद्वितीय विचारों की प्रस्तुति है जिन्हें आपने गहन शोध से सीखा है।

Step 5 आपके पाठक कौन होंगे यह निर्धारित कर लीजिये:

  • थीसिस विकसित करने का आसान तरीका है कि उसे एक प्रश्न के रूप में ढालिए जिसका आपका निबंध उत्तर देगा। वह मुख्य प्रश्न या हाइपोथीसिस क्या है जिसको आप अपने शोधपत्र में प्रमाणित करना चाहते हैं? उदाहरण के लिए आपकी थीसिस का प्रश्न हो सकता है, “मानसिक बीमारियों के इलाज की सफलता को सांस्कृतिक स्वीकृति कैसे प्रभावित करती है?” यह प्रश्न आपकी थीसिस क्या होगी उसे निर्धारित कर सकता है – इस प्रश्न के लिए आपका जो भी उत्तर होगा, वही आपका थीसिस-कथन होगा।
  • शोधपत्र के सभी तर्कों को दिए बिना या उसकी रूपरेखा बताये बिना ही आपकी थीसिस को आपके शोध के मुख्य विचार को व्यक्त करना होगा। यह एक सरल कथन होना चाहिए, न कि कई सहायक वाक्यों का एक समूह, आपका बाक़ी शोधपत्र तो इस काम के लिए है ही!

Step 7 अपने मुख्य बिन्दुओं को निर्धारित कर दें:

  • जब आप अपने मुख्य विचारों की रूप-रेखा बनाएं, उनको एक विशिष्ट क्रम में रखना अहम है। अपने सबसे मज़बूत तर्कों को निबंध के सबसे पहले और सबसे अंत में रखिये। जबकि ज्यादा औसत बिन्दुओं को निबंध के बीचोंबीच या अंत की तरफ रखिये।
  • सबसे मुख्य बिन्दुओं को एक ही पैराग्राफ में समेटना ज़रूरी नहीं है, विशेष करके अगर आप एक अपेक्षाकृत लंबा शोधपत्र लिख रहे हैं। प्रमुख विचारों को जितने पैराग्राफ में आप ज़रूरी समझें फैलाकर लिख सकते हैं।

Step 8 फॉरमैटिंग के दिशानिर्देशों को ध्यान में रखिये:

  • अपनी हर बात को साक्ष्यों से पुष्ट करें। क्योंकि यह एक शोधपत्र है इसलिए ऐसी टिप्पणी न करें जिसकी पुष्टि सीधे आपके शोध के तथ्यों से न हो।
  • अपने शोध में पर्याप्त व्याख्याएं दीजिये। बिना तथ्यों के अपने मत के बखान का विलोम बगैर किसी व्याख्या के बिना तथ्यों को देना होगा। यद्यपि आप निश्चित ही पर्याप्त प्रमाण देना चाहते हैं, तो भी जहां भी संभव हो अपनी टिप्पणी जोड़ते हुए यह सुनिश्चित कीजिए कि शोधपत्र पर आपकी मौलिक और विशिष्ट छाप हो।
  • बहुत सारे सीधे लम्बे उद्धरण देने से बचें। यद्यपि आपका निबंध शोध पर आधारित है, फिर भी महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको अपने विचार प्रस्तुत करने हैं। जिस उद्धरण का आप इस्तेमाल करना चाहते हैं, जब तक वह बेहद अनिवार्य न हो, उसे अपने ही शब्दों में व्यक्त और विश्लेषित करने की कोशिश कीजिए।
  • अपने पेपर में साफ़-सुथरे और संतुलित गति से एक बिंदु से दूसरे तक जाने का प्रयास करें। निबंध में स्वछन्द तारतम्य और प्रवाह होना चाहिए, इसके बजाय कि अनाड़ी की तरह रुक-रुक कर क्रम टूटे और फिर अचानक शुरू हो जाए। यह ध्यान रखें कि लेख के मुख्य भाग वाला हर पैरा अपने बाद वाले से जाकर मिलता हो।

Step 2 निष्कर्ष लिखें:

  • आपके निष्कर्ष का लक्ष्य, साधारण शब्दों में, इस प्रश्न का उत्तर देना है, “तो क्या?” ध्यान रखें कि पाठक आख़िरकार महसूस करे कि उसे कुछ प्राप्त हुआ है।
  • कई कारणों से अच्छा नुस्खा तो यह है कि, निष्कर्ष को भूमिका के पहले लिख लिया जाये। पहली बात तो यह है कि जब प्रमाण आपके दिमाग में ताज़ा हों तो निष्कर्ष लिखना ज्यादा आसान होता है। उससे भी बड़ी बात यह है, सलाह दी जाती है कि आप निष्कर्ष में अपने सबसे चुनिन्दा शब्द और भाषा का मजबूती से इस्तेमाल करें और फिर उन्हीं विचारों को भिन्न शब्दों में अपेक्षाकृत कम वेग के साथ भूमिका में रख दें, न कि इसका उल्टा करें; यह पाठकों पर ज्यादा स्थायी प्रभाव छोड़ेगा।

Step 3 निबंध की प्रस्तावना लिखें:

  • MLA फॉर्मेट को विशेष रूप से साहित्यिक शोध-पत्रों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और इसमें ‘उद्धृत सामग्री’ की एक सूची अंत में जोड़नी होती है, इस विधि में अंतरपाठीय उद्धरण प्रयोग किये जाते हैं।
  • APA फॉर्मेट का इस्तेमाल सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में शोधपत्रों के लिए शोधकर्त्ताओं द्वारा किया जाता है, और इसमें भी अंतरपाठीय उद्धरण देने होते हैं। इसमें निबंध का अंत “सन्दर्भ” पृष्ठ के साथ होता है, और इसमें मुख्य भाग के पैराग्राफों के बीच में अनुच्छेद शीर्षक का प्रयोग भी किया जा सकता है।
  • शिकागो फोर्मटिंग को प्रमुखतः ऐतिहासिक शोधपत्रों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और इसमें अंतरपाठीय उद्धरण के स्थान पर पृष्ठ के नीचे फुटनोट का प्रयोग होता है और साथ में एक ‘उद्धृत सामग्री’ और सन्दर्भों का पृष्ठ जुड़ता है। [७] X रिसर्च सोर्स

Step 5 अपने कच्चे प्रारूप...

  • अपने पेपर का सम्पादन यदि खुद आपने किया है, तो उस पर वापस आने से पहले कम से कम तीन दिन प्रतीक्षा कीजिए। अध्ययन दिखाते हैं कि, लेख समाप्त करने के बाद भी दो-तीन दिन तक यह आपके जेहन में ताज़ा बना रहता है, और इसलिए ज्यादा संभावना यह रहेगी कि आम तौर पर आप जिन बुनियादी त्रुटियों को पकड़ पाते, उन्हें भी अपनी सरसरी नज़र में नजरअंदाज कर जाएँगे।
  • दूसरों के द्वारा संपादन को महज इसलिए नजरअंदाज न करें कि उनसे आपका काम बढ़ जाएगा। अगर वे आपके पेपर के किसी अंश को दोबारा लिखे जाने की सलाह दे रहे हों तो उनके इस आग्रह का संभवतया उचित कारण है। अपने पेपर के सघन सम्पादन पर समय दीजिए। [८] X रिसर्च सोर्स

Step 6 अंतिम ड्राफ्ट को लिखिए:

  • रिसर्च के दौरान महत्वपूर्ण थीम, प्रश्नों और केन्द्रीय मुद्दों को ढूँढ़ें।
  • यह समझने की कोशिश करें कि, आप वास्तव में निर्दिष्ट रूप में किस चीज़ का अन्वेषण करना चाहते हैं, इसके बजाय कि पेपर में ढेर सारे व्यापक विचारों को ठूस दिया जाए।
  • ऐसा करने के लिये अंतिम क्षण तक प्रतीक्षा मत कीजिए।
  • अपने असाइंमेंट को समयानुसार पूरा करना सुनिश्चित कीजिए।

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  • ↑ http://www.infoplease.com/homework/t3sourcesofinfo.html
  • ↑ http://www.ebscohost.com/academic
  • ↑ http://owl.english.purdue.edu/owl/resource/552/03/
  • ↑ http://owl.english.purdue.edu/owl/resource/544/02/
  • ↑ http://www.indiana.edu/~wts/pamphlets/thesis_statement.shtml
  • ↑ http://libguides.jcu.edu.au/content.php?pid=83923&sid=3619280
  • ↑ http://writing.yalecollege.yale.edu/why-are-there-different-citation-styles
  • ↑ http://professionalonlineediting.com/how-to-edit-your-essay-or-research-paper-fast.asp

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शैक्षिक अनुसंधान का स्वरूप एवं विषय क्षेत्र

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शैक्षिक अनुसंधान का स्वरूप एवं विषय क्षेत्र (Nature and Scope of Educational Research)

जॉर्ज जी मॉर्टे   ने शिक्षा की एक वैज्ञानिक पद्धति से व्याख्या की है और शैक्षिक अनुसंधान को विशेष महत्व दिया है। उन्होंने शिक्षा को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिए इसकी समस्याओं, आधुनिकीकरण या संवर्धन के लिए नियोजित अनुसंधान करने को कहा है। शैक्षणिक व्यवस्था के विस्तार का उद्देश्य छात्रों को बेहतर शिक्षा देना है।

इसलिए बेहतर शिक्षा का विकास शिक्षा की पद्धतियों को व्यवस्थागत स्वरूप देने, शिक्षण पद्धति को विकसित करने, प्रशासन, निरीक्षण से सुनिश्चित होता है। अनुसंधान मानव क्रियाओं का महत्वपूर्ण अंग है।

किसी भी विशेष अनुसंधान से हम जीवन के किसी क्षेत्र विशेष में प्रगति कर सकते हैं। मानव में स्थायी विकास की सभ्यता के विकास के साथ ही जिज्ञासा की प्रवृत्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त होती है। मानव का प्रथम प्रयास प्रकृति के रहस्यों को ज्ञात करने का था, जिसमें काफी अधिक सफल नहीं हो सके। किंतु इन रहस्यों के स्थायी पहचान पर मानव ने ध्यान देना शुरू कर दिया।

आग और हथियारों की खोज से मनुष्य ने शक्ति अर्जित करने में सफलता हासिल की। इसी क्रम में हमें बोली का विकास और रहस्यों को समझने के लिए शिक्षा का विकास मिलता है। प्रकृति के रहस्यों को लेकर अपने अनुसंधान को मानव ने शिक्षा के माध्यम से ही आने वाली पीढ़ी को सौंपा।

वर्तमान समय में अनुसंधान और नई खोजों से हमने शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक विस्तार कर लिया है और यह प्रक्रिया सतत जारी है। लगातार नई अवधारणा, नए रास्तों की तलाश से हमारा जीवन सुगम हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांति आई है। वास्तव में अनुसंधान के तीन महत्वपूर्ण कारक हैं-

1. अनुसंधान को पूछताछ की प्रवृत्ति कहा जा सकता है। इसमें किसी विषय के सभी आयामों को सैद्धान्तिक रूप नहीं दिया जाता है बल्कि आवश्यक तथ्यों को ज्ञात करने की कोशिश की जाती है। 2. व्यवस्थागत व शोधार्थ क्रियाकलाप का अनुसंधान एक वैज्ञानिक पद्धति है। जैसे कि हम वैज्ञानिक पद्धति में उपकरणों व चरणबद्ध तकनीकों का प्रयोग कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, उसी प्रकार अनुसंधान से हम शिक्षा के नए आयाम की तलाश करते हैं । 3. अनुसंधान आवश्यक रूप से मस्तिष्क की एक विशेष अवस्था है, जो परिवर्तन के प्रति मित्रवत व आग्राही विचार रखता है। परंपरागत पद्धतियों में बदलाव लाने, उनमें एक नए प्रकार का रास्ता तलाश करने, नए तथ्यों की खोज करने में शोधकर्ता की अत्यंत दिलचस्पी होती है।

शैक्षिक अनुसंधान का स्वरूप एवं विषय क्षेत्र

अनुसंधान को निम्नलिखित भागों में बांटा गया है-

आधारभूत अनुसंधान (Fundamental or Basic Research)

आधारभूत अनुसंधान से हमें किसी भी विषय में गहन विश्लेषण के बाद सामान्यीकरण करने और अनुसंधान की विभिन्न पद्धतियों से प्राप्त प्रदत्तों से प्राप्त करते हैं। यथा- नमूना एकत्र करना, प्राथमिक प्रदत्तों का विश्लेषण करना। सामान्य रूप से हम कह सकते हैं कि अनुसंधान की इस पद्धति में हम व्यवस्थित कार्य से खोज की तरफ अग्रसर होते हैं जो हमें एक व्यवस्थित निकाय विकसित करने में सहायक होता है और इससे हम वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करते हैं।

व्यवहृत या अनुप्रयुक्त अनुसंधान (Applied Research)

आधारभूत अनुसंधान में जहाँ हम सिद्धांतों को प्राप्त करते हैं, वही हम क्रियात्मक अनुसंधान में प्राप्त सिद्धांतों के प्रयोग की संभावना ज्ञात करते हैं। कार्यरूप में शोधकर्ता क्षेत्र अध्ययन के दौरान नियमों का आकलन करता है और उन्हें व्यवहारिक रूप देकर किसी समस्या का हल प्राप्त करने में प्रयुक्त करता है। इसे किसी त्वरित समस्या को हल करने के लिए भी प्रयोग में लाया जाता है।

क्रियात्मक अनुसंधान (Action Research)

यह किसी सिद्धान्त की स्थापना के लिए नहीं  किया जाता है, बल्कि त्वरित समस्या के निवारण के लिए प्रयोग में लाया जाता है। त्वरित निवारण अनुसंधान में पूर्व के प्रयोग, स्थापित मानदंड, प्रदत्त महत्वपूर्ण फीडबैक का कार्य करते हैं । इसी तरह शैक्षिक अनुसंधान को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(i) ऐतिहासिक अनुसंधान (Historical Research) (ii) वस्तुनिष्ठ अनुसंधान (Descriptive Research) (iii) प्रायोगिक अनुसंधान (Experimental Research)

ऐतिहासिक अनुसंधान में भूतकाल की व्याख्या की जाती है। इसमें प्राचीन अनुभवों का गहन विवेचन, विश्लेषण कर निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश की जाती है और समस्याओं के सामान्यीकरण से हल निकाला जाता है। यह अनुसंधान पद्धति बहुत हद तक भूत और वर्तमान को समझने के साथ-साथ भविष्य का अनुमान लगाने में मददगार साबित होता है।

जबकि वस्तुनिष्ठ अनुसंधान में हमें किसी समस्या का भूत ज्ञात होता है। विभिन्न आंकड़ों की विवेचना, विश्लेषण और निष्कर्षों से हम नए अनुसंधान की तरफ बढ़ते हैं।

वही प्रायोगिक अथवा प्रयोगात्मक अनुसंधान में किसी विशेष वैरिएबल को नियंत्रित कर निष्कर्षों का अध्ययन करते हैं। अनुसंधान की इस पद्धति में वैरिएबल के संबंधों पर ध्यान दिया जाता है।

एल. वी. रेडमन (L.V.Redman) ने “Encyclopedia of Social Science” में परिभाषा इस प्रकार दी है,” अनुसंधान नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्थित प्रयास है।”

पी. एम. कुक (P.M. Cook) के अनुसार, “किसी समस्या के संदर्भ में ईमानदारी, विस्तार तथा बुद्धिमानी से तथ्यों, उनके अर्थ तथा उपयोगिता की खोज करना ही अनुसंधान है।”

एम. एम. ट्रेवर्स (M.M. Traverse) के अनुसार, “शैक्षिक अनुसंधान वह प्रक्रिया है, जो शैक्षिक परिस्थितियों में एक व्यवहार संबंधी विज्ञान के विकास की ओर अग्रसर होती है।”

सी. सी. क्रोफोर्ड (C.C. Crowford) के अनुसार, “ अनुसंधान किसी समस्या के अच्छे हेतु क्रमबद्ध तथा विशुद्ध चिन्तन एवं विशिष्ट उपकरणों के प्रयोग की एक विधि है।”

डॉ. एम. वर्मा के अनुसार, “अनुसंधान एक बौद्धिक प्रक्रिया है, जो नए ज्ञान को प्रकाश में लाती है अथवा पुरानी त्रुटियों एवं भ्रान्तधारणाओं का परिमार्जन करती है, तथा व्यवस्थित रूप से वर्तमान ज्ञान-कोष में वृद्धि करती है।”

पारस नाथ राय व चाँद भटनागर के अनुसार, “अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य वैज्ञानिक विधियों द्वारा विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर अथवा विशिष्ट समस्याओं का समाधान प्राप्त करना है। इस उत्तर की प्राप्ति के लिए विशेष विधियों का विकास किया जाता है जिनसे इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि प्राप्त जानकारी न केवल पूछे गए प्रश्नों से सम्बन्धित है अपितु वह विश्वसनीय भी है। वैज्ञानिक अनुसंधान की एक अन्य विशेषता यह है कि वह सदा ही किसी प्रश्न या समस्या के रूप में उत्पन्न होता है।”

अनुसंधान एक उद्देश्यपूर्ण बौद्धिक क्रिया है। इसमें किसी सैद्धान्तिक या व्यवहारिक समस्या के समाधान का प्रयास होता है और अनुसंधान की समस्या सीमांकित (Delimited) होती है। इसके अंतर्गत किसी नए सत्य की खोज, पुराने सत्यों का नए ढंग से प्रस्तुतीकरण अथवा प्रदत्तों में व्याप्त नए सम्बन्धों का स्पष्टीकरण होता है।

यह प्रक्रिया वैज्ञानिक होती है, इसमें प्रदत्तों (Dates) प्राप्त करने हेतु, विश्वसनीय (Reliable) तथा वैध (Valid) तथा वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक उपकरणों (Tools) का प्रयोग होता है। इसमें प्राकल्पनाओं (Hypothesis) का निर्माण और उनका वैज्ञानिक ढंग से परीक्षण होता है । प्रदत्तों के विश्लेषण (Analysis) हेतु सांख्यिकीय, (Statistical) विधियों का प्रयोग होता है। साथ में प्राप्त निष्कर्ष पूर्ण रूप से प्रदत्तों के विश्लेषण पर ही आधारित होते हैं। सम्पूर्ण प्रक्रिया का वास्तविक प्रतिवेदन (Repent) प्रस्तुत किया जाता है जिससे अन्य लोग भी उसकी परीक्षा एवं सत्यापन कर सकें ।

डॉ. बी. बी. पाण्डेय ने कहा है, अनुसंधान प्रक्रिया के द्वारा प्रदत्तों के विश्लेषण के आधार पर किसी समस्या का विश्वसनीय समाधान ज्ञात किया जाता है।……इसमें नवीन तथ्यों की खोज की जाती है एवं नवीन सत्यों या तथ्यों का प्रतिपादन किया जाता है तथा साथ ही साथ प्राचीन तथ्यों तथा प्रत्ययों का नवीन अर्थामत या व्याख्या (New interpretation) भी किया जाता है।”

अनुसंधान के अंतर्गत किसी तथ्य को बार-बार सम्बन्धित प्रदत्तों के आधार पर देखने या खोजने का प्रयास किया जाता है एवं निष्कर्ष निकाला जाता है। मूल रूप से अनुसंधान का अर्थ (Enquiry) से सम्बन्धित रहा है किन्तु धीरे-धीरे निरन्तर इसका संशोधन और विकास होता गया है ।

डॉ. पारसनाथ राय के अनुसार यह शिक्षा से स्वस्थ दर्शन पर आधारित है। यह सूझ तथा कल्पना पर आधारित है। इसमें अंतर-वैज्ञानिक (Inter-disciplinary) पद्धति का प्रयोग होता है। इसमें प्रायः निगमनात्मक तर्क पद्धति का प्रयोग होता है। यह शिक्षा-क्षेत्रों में सुधार करता है तथा उसके विकास की समस्याओं का समाधान करता है। शैक्षिक अनुसंधान में उतनी सीमा तक शुद्धता नहीं होती जितनी प्राकृतिक विज्ञानों में होती है। यह केवल विशेषज्ञों द्वारा ही नहीं किया जाता अपितु शिक्षक, प्रधानाचार्य, निरीक्षक, प्रशासक आदि के द्वारा किया जाता है।

शैक्षिक अनुसंधान के क्षेत्र (Scope of Education Research)

शैक्षिक अनुसंधान के क्षेत्र शिक्षा-दर्शन, शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण, उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु नियोजन, व्यवस्थापन, संचालन, समायोजन, व्यवस्था, शिक्षण-विधि, अधिगम व उसे प्रभावित करने वाले तत्त्व, प्रशासन, पर्यवेक्षण, मूल्यांकन आदि। इनके अतिरिक्त शिक्षक संबंध, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक, सहायक-सामग्री आदि।

अनुसंधान की आवश्यकता (Need and Significance)

शैक्षिक अनुसंधान शैक्षिक समस्याओं के समाधान में इस प्रकार सहायक है : 1. ज्ञान के विकास में सहायक – गुड व स्केट्स (Good & Scates) का मत है, “विज्ञान का कार्य बुद्धि का विकास करना है तथा अनुसंधान का कार्य विज्ञान का विकास करना है।” 2. अनुसंधान उद्देश्य प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है -शैक्षिक अनुसंधान एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है जो शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में अत्यन्त सहायक है । 3. समाज-परिवर्तन की मन्द गति को तीव्र बनाने में सहायक है -अनुसंधान द्वारा नवीन आविष्कारों से समाज परिवर्तन की प्रक्रिया में शिक्षा सहायक होती है । 4. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना के विकास में सहायक -शैक्षिक अनुसंधान के अंर्तगत लोकहितकारी भावनाओं का समन्वय होता है जिससे वह राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव के विकास में सहायक होता है। 5. शैक्षिक अनुसंधान व उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सरल उपाय बतलाता है -अतः इसकी आवश्यकता एवं महत्व बना रहता है। 6. अनुसंधान सुधार प्रक्रिया में सहायक होता है क्योंकि वह वैज्ञानिक होने के कारण रूढ़िगत विचारों व व्यवहारों में सुधार लाता है । 7. यह सत्य-ज्ञान की खोज की उत्सुकता शान्त करता है -विज्ञान सम्मत होने का कारण शैक्षिक अनुसंधान सत्य की खोज में सहायक होता है। 8. प्रशासनिक क्षेत्र में सहायक -प्रशासन की अनेक समस्याओं के समाधान द्वारा उसे प्रभावी बनाता है । 9. अध्यापक के लिए अपरिहार्य -क्योंकि अध्यापन में आ रही अनेक कठिनाइयाँ व समस्याएं क्रियात्मक अनुसंधान द्वारा हल हो जाती है। अतः यह शिक्षक के लिए अत्यन्त आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। 10. विभिन्न विज्ञानों की प्रगति में सहायक -अनुसंधान भौतिक एवं सामाजिक सभी विज्ञानों की प्रगति में सहायक होता है। 11. व्यवहारिक समस्याओं का मूल स्रोत -शिक्षा क्षेत्र की व्यावहारिक समस्याओं का “क्रिया अनुसंधान” (Action research) जैसी अनुसंधान विधियों द्वारा समाधान मिलता है। 12. पूर्वग्रहों का निदान व निवारण -शैक्षिक अनुसंधान द्वारा शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त अनेक हानिकारक पूर्वग्रहों व मान्यताओं का पता लगाकर उन्हें किया जा सकता है ।

डॉ. बी. बी. पाण्डेय ने अपनी पुस्तक “ शैक्षिक और सामाजिक अनुसंधान एवं सर्वेक्षण ” में कहा है, “मानव-जाति की अधिकतम उन्नति एवं विकास के क्रियान्वयन में अनुसंधान का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है। इसीलिए अनुसंधान की ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।”

शैक्षिक अनुसंधान का उद्देश्य

शैक्षिक समस्याओं का वैज्ञानिक विधि से निदान व समाधान करना है । डब्ल्यू. एस. मुनरो (W.S. Munroe) ने शैक्षिक अनुसंधान की परिभाषा देते हुए उसके उद्देश्य को इस प्रकार व्यक्त किया है- “अनुसंधान उन समस्याओं के अध्ययन की एक विधि है, जिसका अपूर्ण अथवा पूर्ण समाधान तथ्यों के आधार पर ढूँढना है। अनुसंधान के लिए तथ्य, लोगों के मतों के कथन, ऐतिहासिक तथ्य, लेख अथवा अभिलेख, परखों (Tests) से प्राप्त कर, प्रश्नावाली के उत्तर अथवा प्रयोगों से प्राप्त सामग्री से हो सकता है।”

वैज्ञानिक खोज और सिद्धान्त का विकास (Scientific Research and Principle of Development)

पारसनाथ राय एवं सी. भटनागर ने अपनी पुस्तक “अनुसंधान परिचय” में कहा है- “मनुष्य जैसे-जैसे प्रगति के पथ पर बढ़ता गया, उसने ज्ञान प्राप्त करने की नवीन विधियाँ खोजी……जिनमें केवल वैज्ञानिक विधि (Scientific Method) ही ज्ञान प्राप्त करने की प्रामाणिक विधि मानी जाती है।”

वैज्ञानिक खोज या अनुसंधान के अंतर्गत चरों तथा घटनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों का वैज्ञानिक विधि के अनुसार अन्वेषण तथा विश्लेषण किया जाता है। यह सांख्यिकी विधि के आधार पर किया जाता है। अन्वेषण द्वारा प्राप्त व विश्वसनीयता की जाँच की जाती है। अत: अनुसंधान ज्ञान को विस्तृत, विशुद्ध, संगठित तथा क्रमबद्ध बनाता है। अनुसंधान द्वारा वैज्ञानिक ज्ञान की प्राप्ति की जाती है।

अनुसंधान की नई प्रवृतियाँ हैं- वस्तुनिष्ठता (Objectivity), निश्चयात्मकता (Definiteness), सत्यनीयता (Verifi-ability), सामान्यता (Generality), अर्थात् सिद्धान्त निर्माण, भविष्य-कथन की क्षमता, आत्म संशोधनीयता, (Self-correction), परिकल्पना (Hypothesis), का प्रयोग मात्रात्मक अनुमान (Qualitative estimate)।

अनुसंधान के प्रकार (Types of Research)

मूलभूत अनुसंधान (fundamental or basic research).

मूलभूत अनुसंधान में अनुसंधानकर्त्ता प्राकृतिक परिदृश्य (Phenomenon) को अपने अध्ययन के निष्कर्षों से सम्बन्धित करता है। इस प्रकार के अनुसंधान का उद्देश्य तथ्यों का एकत्रीकरण है क्योंकि ये तथ्य हमारे ज्ञान में वृद्धि करते हैं।

अनुप्रयुक्त अनुसंधान (Applied Research)

इस प्रकार के अनुसंधान द्वारा किसी विशेष समस्या का समाधान किया जाता है। इसमें विज्ञान के कुछ विशेष नियमों का किसी विशेष प्रकरण पर प्रभाव जाना जाता है। यदि अनुसंधानकर्त्ता किसी समस्या का समाधान करें तो यह अनुसंधान व्यहृत या अनुप्रयुक्त अनुसंधान कहलाता है

सामाजिक विज्ञानों में क्रियात्मक समस्याओं (Practical problems) पर किए गए अनुसंधान नए सिद्धान्तों तथा नियमों के बुलाने में सहायक होते हैं।

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A study on gender inequality in higher education in Indian context

Profile image of krishnendu sen

2017, Panchakot Mahavidyalaya

This study considers the gender inequality that exists among every region, social class and prevents the growth of Indian education systems. The reality of gender inequality of higher education in India is very complex and diversified, because it exists in every field like education, employment opportunities, income, health, cultural issues, social issues, economic issues etc. An attempt has been made to find out those factors which are responsible for this problem in Indian education systems. So, this paper highlights the multidimensional context of gender inequalities prevalent in Indian education systems. Overall, the study indicates the inequality in economic, social, cultural and legal biasness which are of a great challenge for policy-makers and social scientists to establish proper equality in the entire social field. The researchers have tried to suggest some relevant strategies and policies implication for reducing this gender inequality and to promote the dignified position for Indian women.

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research paper in education in hindi

International Journal of Multidisciplinary Research

Nilutpal Chutia , Ritopan Borah

Gender disparity in education is one of the root causes that push the women section back towards a lower socio-economic status. Male favouring gender disparity in education deprives the women section in achieving equal opportunities in the society. India has been experiencing recordable expansion in higher education in terms of coverage of large numbers of students and increase in the number of institutions and growth of public funds for this sector. But, question arises whether this type of unprecedented expansion is supportive to resolve the problem of male-female disparity in higher education in the country. So, in this paper, with the help of relevant secondary information, an attempt has been made to examine the present state of gender disparity in the country and to explore probable factors responsible for this issue. Here, six socio-economic variables have been selected to deal with the roblem of gender disparity in higher education. Out of these, only four variables, viz.: per capita NSDP, level of poverty, drop out ratio for girls and women’s age at marriage have statistically significant correlation with the women enrolment in higher education.

Jayashree Swain

The research paper attempts to examine the status of Higher Education in India and the factors or determinants which adversely affects the girl’s enrollment in higher education. The researchers collected various secondary data, research papers and reports for the extensive review of literatures on the disparities among the girl’s education. The research paper is divided in to four phases, the first section mentioned about the various inputs of report, policies and research paper in girl’s higher education system. The second phase covered different variables or factors which were found during literature regarding gender disparities in Higher education. The third section covered the methodology used for secondary data analysis and the last section mentioned the concluding remarks of the paper.

IJRISE Journal

Women render the most vital service to the society by playing different roles. But it is quite unfortunate that after the first decade of 21 st century women are suffering with gender discriminations in society. So it is the need of the hour to bring them in the lime light to receive the cosmic rays of education. To this end their full as well as effective participation and equal enrolment with boys are the preconditions. So this paper puts focus on girls' participation in higher education in India. For this reason data were collected from different secondary sources. The analysis revealed that condition of girls' enrolment is quite miserable in higher level of education. Gender parity is not achieved till now by India in Higher education. Though disparity is reducing here, but it is present in majority of the states. Some of these states are very developed in higher education. On the other hand some states of India's NorthEast and UTs providing more opportunities to women in higher education though these are not well developed in higher education. There is also disparity in different levels of higher education. This disparity is not uniformly distributed across the levels. In some level female are in advantageous position. But in majority of the levels they are lagging behind. The disparity is also observed in the distribution of women enrollment among the various faculties. Here general education is more favorable to women than that of vocational and technical education. Gender disparity is also found in different teaching and hierarchical post in higher education. So the paper ends with suitable suggestions to foster gender equity as well as equality in education.

Dr.Rajkumar Nayak

India struggles with gender inequality issues beyond just equal economic growth and access to educational resource opportunities. Gender inequality exists in the form of socially constructed, predefined gender roles firmly anchored in India's sociocultural fabric that has deep cultural and historical roots. Sociocultural influences have spillover effects across all domains, including the organizational workforce, and social and political contexts. This unquestionable influence is still accepted as the norm within the societal and familial periphery.The purpose of this article is to provide an analysis of the causes of gender inequality in India. A secondary purpose is to outline the possible policies and practices, within a human resource development (HRD) framework, that could be implemented as productive steps toward reducing gender inequality in the Indian workplace.This article will be of interest to individuals who conduct research, teach, and practice HRD. It will assist researchers in their understanding of how social, cultural, and historical contexts must be considered when studying gender inequality in India. Information gained from this article will help curriculum developers understand the importance of social and cultural influences in developing HRD courses for use not only in higher education institutions but also in workplace settings.

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Higher education is a crucial tool for equipping women with the information, skills, and self-confidence they need. It reduces inequities and aids in the improvement of their standing within the family. Women's higher educational achievements can have a cascading effect across families and across generations. There are numerous policies and programmes aimed at improving women's lives. Identification of skills and vocations suited for women is required for this goal. Furthermore, efficient execution of government laws and various governments of India programmes relating to women's empowerment and higher education should be ensured. The purpose of this paper is to examine the role of higher education in women's empowerment. Women's education and empowerment are development indicators. It means ensuring quality while ensuring a fairer and better access to technical and vocational education and training, higher education and research. Women's engagement in higher education through women's higher education institutes was the focus of this message. It entails ensuring quality while ensuring more equal and increased access to technical and vocational education and training, higher education, and research. Women's engagement in higher education through women's higher education institutes was the focus of this message.

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मूल्य शिक्षा का महत्व

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  • Updated on  
  • मार्च 10, 2023

मूल्य शिक्षा

मूल्य शिक्षा हमारे अंदर नैतिक मूल्यों का विकास करती है। ये सीखने के साथ-साथ हमारे व्यक्तित्व में भी विकास करती है। अमेरिकी मनोवैज्ञानिक लॉरेंस कोहलबर्ग का मानना था कि बच्चों को एक ऐसे माहौल में रहने की जरूरत है जो दिन-प्रतिदिन के संघर्षों की खुली और सार्वजनिक चर्चा के लिए अनुमति देता है। Value Education की महत्ता हमारे पर्सनालिटी डेवलपमेंट में सहायक है तथा विद्यार्थी के गुणों में विकास करता है। यह हमारे जीवन में अनुशासन के महत्व को भी बताता है। इतना ही नहीं यह हमारे अंदर समय के महत्व को समझने की क्षमता को विकसित करता है। खेल के महत्व को समझना, भी मूल्य शिक्षा को समझने तथा रोचक ढंग से व्यक्तित्व के विकास में प्रमुख भूमिका निभाता है। इस ब्लॉग में मूल्य शिक्षा के बारे में विस्तार से जानते हैं।

This Blog Includes:

मूल्य शिक्षा क्या है, मूल्य शिक्षा की परिभाषाएं, इसके क्या फायदे हैं, 21 वीं सदी में मूल्य शिक्षा का महत्व और आवश्यकता, मूल्य शिक्षा के उद्देश्य, मूल्य शिक्षा में शिक्षक की भूमिका, जीवन मूल्य शिक्षा का महत्त्व, मूल्य शिक्षा के कुछ सिद्धांत, मूल्य शिक्षा की विशेषताएं, स्कूल सिलेबस में मूल्य शिक्षा का महत्व, मूल्य शिक्षा का महत्व पर निबंध , मूल्य शिक्षा पर निबंध ppt, प्रारंभिक आयु नैतिक और मूल्य शिक्षा, युवा कॉलेज के छात्र (प्रथम या द्वितीय वर्ष के ग्रेजुएट्स), वयस्कों के लिए कार्यशालाएँ, छात्र विनिमय कार्यक्रम, सह पाठ्यक्रम गतिविधियां.

मूल्य शिक्षा व्यक्तियों के व्यक्तित्व विकास पर जोर देती है ताकि उनका भविष्य संवर सके और कठिन परिस्थितियों से आसानी से निपटा जा सके। यह बच्चों को ढालता है, ताकि वे अपने सामाजिक, नैतिक और लोकतांत्रिक कर्तव्यों को कुशलतापूर्वक संभालते हुए बदलते वातावरण से जुड़ जाएं।

  • Value Education की महत्ता शारीरिक और भावनात्मक पहलुओं को विकसित करता है।
  • यह आपको ढंग सिखाता है और भाईचारे की भावना विकसित करता है।
  • यह देशभक्ति की भावना पैदा करता है।
  • मूल्य शिक्षा धार्मिक सहिष्णुता को भी विकसित करता है।

मूल्य शिक्षा को लेकर कई प्रकार की परिभाषाएं देखने को मिलती है जिनमें से कुछ नीचे दी गई है:

  • लेविन (1964) के अनुसार  “लालच की भावना में उच्चतम रुकावट सकारात्मक रूप में शारीरिक दण्ड की प्रक्रिया से है और नकारात्मक रूप से विचार और तर्कशक्ति की प्रक्रिया है।” 
  • गुरुराजा (1978)  के अनुसंधान में पाया कि “नैतिक मूल्यों का ज्ञान, अभिप्राय पूर्णता से प्रभावित होता है।”
  • बरटोन (1961) के अनुसार-  “नैतिक विकास एवं संयुक्त घटना है, न कि पृथक्-पृथक् प्रक्रिया।”

मूल्य शिक्षा के फायदे क्या हैं, यह नीचे बताए गए हैं-

  • यह जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने और सफल होने के लिए आवश्यक किरदारों को विकसित करने में मदद करता है।
  • यह आपकी पर्सनालिटी को आकार देता है, आपको जीवन और उसके संघर्षों के प्रति विनम्र और आशावादी बनाता है।
  • आपको हर स्थिति में सही और सकारात्मक दृष्टिकोण की ओर आकार देता है और आने वाली चुनौतियों और प्रतिस्पर्धा के लिए आपको मजबूत बनाता है।
  • यह छात्रों को उनके जीवन के उद्देश्य को जानने में मदद करता है और उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए सही रास्ता चुनने में मदद करता है।
  • यह छात्रों को दूसरों के प्रति अधिक जिम्मेदार और समझदार बनाता है। वे मनुष्य के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए दूसरों की स्थितियों को समझने और उनके प्रति अधिक संवेदनशील बनने में सक्षम होते हैं।
  • यह आने वाली चुनौतियों और कम्पटीशन के लिए आपको मजबूत करता है।
  • यह करैक्टर का निर्माण करता है जो छात्रों को सफलता और आध्यात्मिक विकास की दिशा में मूल्यांकन करेगा।

मूल्य शिक्षा को एक अलग अनुशासन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, लेकिन शिक्षा प्रणाली के अंदर शामिल होना चाहिए। केवल समस्याओं को हल करना उद्देश्य नहीं होना चाहिए, इसके पीछे के स्पष्ट कारण और मकसद के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। नीचे 21 वीं सदी में Value Education और आवश्यकता को प्रदर्शित करने वाले प्रमुख बिंदु दिए गए हैं-

  • मूल्य शिक्षा का महत्व कठिन परिस्थितियों में सही निर्णय लेने में मदद करता है जिससे निर्णय लेने की क्षमता में सुधार होता है।
  • उम्र के साथ जिम्मेदारियों की एक विस्तृत श्रृंखला आती है। यह कई बार अर्थहीनता की भावना को विकसित कर सकता है और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों, मध्य-करियर संकट और किसी के जीवन के साथ बढ़ते असंतोष को जन्म दे सकता है। मूल्य शिक्षा का उद्देश्य कुछ हद तक लोगों के जीवन में शून्य भरना है।
  • मूल्य शिक्षा का महत्व जिज्ञासा जगाने और मूल्यों और हितों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह आगे कौशल विकास में मदद करता है।
  • इसके अलावा, जब लोग समाज और उनके जीवन में मूल्य शिक्षा का अध्ययन करते हैं, तो वे अपने लक्ष्यों और जुनून के प्रति अधिक उत्साहित और बंधे हुए होते हैं। इससे जागरूकता का विकास होता है जिसके परिणामस्वरूप विचारशील और पूर्ण निर्णय लेते हैं।
  • मूल्य शिक्षा का मुख्य महत्व मूल्य शिक्षा के क्रियान्वयन और इसकी महत्ता को अलग करने पर प्रकाश डाला गया है। यह ‘अर्थ’ की भावना को पीछे छोड़ देता है, जो किसी को करना है और इस प्रकार व्यक्तित्व विकास में सहायक है ।

समकालीन दुनिया में, मूल्य शिक्षा का महत्व कई गुना है। हमारे लिए जानना आवश्यक हो जाता है जाता कि मूल्य शिक्षा एक बच्चे की स्कूली यात्रा में शामिल है और उसके बाद भी यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे नैतिक मूल्यों के साथ-साथ नैतिकता को भी आत्मसात करें। यहाँ मूल्य शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य दिए गए हैं-

  • शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक पहलुओं के संदर्भ में बच्चे के व्यक्तित्व विकास के लिए एक सभी दृष्टिकोण सुनिश्चित करना।
  • देशभक्ति की भावना के साथ-साथ एक अच्छे नागरिक के मूल्यों में वृद्धि।
  • छात्रों को सामाजिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाईचारे के महत्व को समझने में मदद करना।
  • अच्छे शिष्टाचार और जिम्मेदारी और सहकारिता का विकास करना।
  • रूढ़िवादी विवरण की ओर जिज्ञासा और जिज्ञासा की भावना को बढ़ावा देना।
  • नैतिक सिद्धांतों के आधार पर ध्वनि निर्णय लेने के तरीके के बारे में छात्रों को सिखाना।
  • सोच और जीने के लोकतांत्रिक तरीके को बढ़ावा देना।
  • सहनशीलता और विभिन्न संस्कृतियों और धार्मिक विश्वासों के प्रति सम्मान के महत्व के साथ छात्रों को लागू करना।

माता-पिता के बाद गुरु का को ही सबसे ऊपर माना गया है। गुरु अर्थात शिक्षक उस कुम्हार के समान है जो मिट्टी रूपी विद्यार्थी को एक बरतन का आकार देकर एक योग्य व उपयोगी पात्र बना देता है। गुरू किसी भी छात्र को ऐसी शिक्षा देकर एक बेहतर मनुष्य बना देता है। एक शिक्षक ही विद्यार्थी को समाज के प्रति उसके उत्तरदायित्वों से रुबरु कराता है। एक शिक्षक का सबसे मुख्य काम यह है कि वह अपने  विद्यार्थी को वर्तमान और भविष्य को ध्यान में रखकर शिक्षा दे। शिक्षा में परंपरा और नवीनता का मिश्रण होना चाहिये। वो विद्यार्थी को केवल किताबी ज्ञान तक ही सीमित न रखे बल्कि उसे जीवन के व्यवहारिक ज्ञान की भी शिक्षा दे। विद्यार्थी तो एक गीली मिट्टी से समान होता है शिक्षक उसे जैसा ढालेगा वैसा ढल जायेगा। यहाँ पर शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। नैतिक मूल्यों की जो शिक्षा वो विद्यार्थी को देगा उसका प्रभाव विद्यार्थी पर जीवन पर्यंत बना रहेगा। यहीं से उसके चरित्र निर्माण की प्रक्रिया आरंभ होगी। अतः नैतिक मूल्यों के उत्थान में शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

हमारे जीवन में जीवन मूल्य शिक्षा का बहुत महत्व है। मूल्य शिक्षा के माध्यम से हम व्यक्ति समाज में सकारात्मक मूल्यों के क्षमताओं और अन्य प्रकार के व्यवहार को विकसित करता है जिसमें वह रहता है’। मूल्य शिक्षा का अर्थ है, दैनिक जीवन में कौशल, व्यक्तित्व के सभी दौरों को समझना। इसके माध्यम से छात्र जिम्मेदारी, अच्छी या बुरी दिशा में जीवन का महत्व, लोकतांत्रिक तरीके से जीवन यापन, संस्कृति की समझ, महत्वपूर्ण सोच आदि को समझ सकते हैं। मूल्य शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अधिक नैतिक और लोकतांत्रिक समाज बनाना है।

मूल्य शिक्षा के कुछ सिद्धांत इस प्रकार हैं:

  • सभी का सम्मान
  • स्वास्थ्य की देखभाल करें
  • मूल्य आधारित शिक्षा के प्रकार

यदि शिक्षा का अर्थ निकालना, ग्रहण करना या अर्जित करना है, तो मूल्याधारित शिक्षा का अर्थ होगा जो मूल्य यानि कि सार या महत्व है, उसको निकालना या अर्जित करना। शिक्षा में व्यक्ति, समाज तथा राज्य के अनिवार्य तत्त्वों को शामिल किये जाने की आवश्यकता रहती है। तब ही वह समग्र तथा पूर्ण शिक्षा हो पाती है। वास्तव में शिक्षा व्यक्तित्व तथा चरित्र निर्माण का सर्वाधिक सशक्त साधन है।

मूल्य शिक्षा की विशेषताएं नीचे दी गई हैं-

  • मूल्य शिक्षा से छात्रों में सहयोग, समानता, साहस, प्रेम एवं करुणा, बन्धुत्व, श्रम-गरिमा वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विभेदीकरण करने की क्षमता आदि गुणों का विकास होता है।
  • मूल्य शिक्षा छात्रों को एक उत्तरदायी नागरिक बनने के लिए प्रशिक्षित करती है।
  • मूल्यों के सम्बन्ध में तीसरा तथ्य यह है कि ये समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं।
  • मूल्य समाज के अनेक विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त, नैतिक नियम और व्यवहार के मानदण्ड होते हैं, व्यक्ति इनमें से कुछ को अधिक महत्त्व देता है और कुछ को अपेक्षाकृत कम। वह जिन्हें जितना ज्यादा महत्त्व देता है, वह उसके लिए उतने ही अधिक शक्तिशाली मूल्य होते हैं।
  • मूल्य व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित एवं दिशा निर्देशित करते हैं।

स्कूल के सिलेबस में मूल्य शिक्षा की आवश्यकता है और महत्वपूर्ण है क्योंकि यह छात्रों को बुनियादी बुनियादी नैतिकताएं सीखने में मदद करता है जो उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने के साथ-साथ मानव बनने के लिए आवश्यक हैं। नीचे इसके महत्व के बारे में बताया गया है-

  • मूल्य शिक्षा उनके भविष्य को आकार देने और जीवन में उनके सही उद्देश्य को खोजने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
  • चूंकि स्कूल हर बच्चे के सीखने की नींव रखता है, इसलिए स्कूल सिलेबस में मूल्य आधारित शिक्षा को जोड़ने से उन्हें अपनी शैक्षणिक यात्रा की शुरुआत से सबसे महत्वपूर्ण मूल्यों को सीखने में मदद मिल सकती है।
  • स्कूल में एक अनुशासन के रूप में मूल्य शिक्षा भी उच्च स्कोर के लिए अवधारणाओं, सूत्रों और सिद्धांतों को रटने के बजाय मानवीय मूल्यों को सीखने पर अधिक केंद्रित हो सकती है। इस प्रकार, मूल्य शिक्षा में कहानी का उपयोग करना भी छात्रों को मानवीय मूल्यों की अनिवार्यता सीखने में मदद कर सकता है। 
  • शिक्षा निश्चित रूप से अधूरी होगी यदि इसमें Importance of Value Education के अध्ययन को शामिल नहीं किया गया है जो हर बच्चे को अधिक दयालु, और सशक्त व्यक्ति बनने में मदद कर सकता है और इस तरह हर बच्चे में भावनात्मक बुद्धिमत्ता का पोषण कर सकता है।

मूल्य शिक्षा बच्चों के  संपूर्ण विकास में योगदान देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।हमारे बच्चों में मूल्यों को एम्बेड किए बिना, हम उन्हें अच्छी नैतिकता के बारे में नहीं सिखा पाएंगे, क्या सही है और क्या गलत है साथ ही दयालुता, सहानुभूति और करुणा जैसे प्रमुख लक्षण भी Importance of Value Education में  हैं। प्रौद्योगिकी की उपस्थिति और इसके हानिकारक उपयोग के कारण 21वीं सदी में मूल्य शिक्षा की आवश्यकता और महत्व कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। बच्चों को आवश्यक मानवीय मूल्यों के बारे में पढ़ाने से, हम उन्हें सर्वोत्तम डिजिटल कौशल से घटाया जा सकता है और उन्हें नैतिक व्यवहार और करुणा के महत्व को समझने में मदद कर सकते हैं। मूल्य शिक्षा छात्रों को जीवन के बारे में सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करती है और उन्हें एक अच्छा इंसान बनने के लिए प्रेरित करती है, उन लोगों की मदद करती है, उनके समुदाय का सम्मान करने के साथ-साथ अधिक जिम्मेदार और समझदार बनाती है।

मूल्य शिक्षा के प्रकार

प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा से लेकर तृतीयक शिक्षा तक विभिन्न स्तरों पर मूल्य शिक्षा को कैसे शामिल किया गया है, इसका पता लगाने के लिए, हमने कुछ महत्वपूर्ण चरणों और मूल्य शिक्षा के प्रकारों के बारे में बताया है जो एक छात्र के संपूर्ण विकास को सुनिश्चित करने के लिए इसे शामिल करना चाहिए।

भारत सहित दुनिया भर में मध्य और उच्च विद्यालय के सिलेबस में नैतिक विज्ञान या मूल्य शिक्षा का एक पाठ्यक्रम है। हालांकि, ये पाठ्यक्रम शायद ही कभी जीवन में मूल्यों के विकास और महत्व पर ध्यान केंद्रित करते हैं, बल्कि नैतिकता और स्वीकार्य व्यवहार पर ध्यान केंद्रित करते हैं। प्रारंभिक बचपन की शिक्षा के स्तर पर मूल्य शिक्षा के कुछ प्रकार को शामिल करना रचनात्मक हो सकता है।

कुछ विश्वविद्यालयों ने पाठ्यक्रम शामिल करने या आवधिक कार्यशालाओं का आयोजन करने का प्रयास किया है जो Importance of Value Education को सिखाते हैं। उनके करियर के लक्ष्य क्या हैं और दूसरों और पर्यावरण के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के बारे में पुनर्विचार करने वाले छात्रों के संदर्भ में सफलता का उत्साहजनक स्तर रहा है।

चिंताजनक रूप से, जो लोग अपने पेशेवर करियर में केवल 4 से 5 साल तक रहे हैं, वे नौकरी की थकावट, असंतोष और निराशा के लक्षण दिखाना शुरू करते हैं। वयस्कों के लिए मूल्य शिक्षा का महत्व तेजी से बढ़ा है। कई गैर-सरकारी फाउंडेशनों ने स्थानीय कार्यशालाओं का संचालन करना शुरू कर दिया है ताकि व्यक्ति अपने मुद्दों से निपट सकें और इस तरह के सवालों का बेहतर तरीके से प्रबंधन कर सकें।

यह छात्रों के बीच रिश्तेदारी की भावना पैदा करने का एक और तरीका है। न केवल छात्र विनिमय कार्यक्रम संस्कृतियों की एक सारणी का पता लगाने में मदद करते हैं, बल्कि देशों की शिक्षा प्रणाली को समझने में भी मदद करते हैं।

स्कूल में सह-पाठयक्रम गतिविधियों के माध्यम से मूल्यपरक शिक्षा प्रदान करना बच्चों में शारीरिक, मानसिक और अनुशासनात्मक मूल्यों को बढ़ाता है। इसके अलावा, कठपुतली , संगीत और रचनात्मक लेखन भी  पूरे विकास में सहायता करते हैं।

शिक्षण मूल्यों की अवधारणा पर सदियों से बहस होती रही है। असहमति इस बात पर हुई है कि मूल्य शिक्षा को पहाड़ी आवश्यकता के कारण स्पष्ट रूप से पढ़ाया जाना चाहिए या क्या इसे शिक्षण प्रक्रिया में निहित किया जाना चाहिए। ध्यान देने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कक्षाएं या पाठ्यक्रम शिक्षण मूल्यों में सफल नहीं हो सकते हैं, लेकिन वे निश्चित रूप से Importance of Value Education को सिखा सकते हैं। यह छात्रों को उनके आंतरिक जुनून और रुचियों की खोज करने और उनकी ओर काम करने में मदद कर सकता है। शिक्षक मूल्यों की प्रकृति की व्याख्या करने में छात्रों की सहायता कर सकते हैं और इसके लिए काम करना क्यों महत्वपूर्ण है। इस वर्ग / पाठ्यक्रम का स्थान, यदि एक होना है, तो अभी भी भयंकर बहस चल रही है।

यदि आप मूल्य शिक्षा या एक प्रस्तुति के महत्व पर एक भाषण के लिए तैयारी कर रहे हैं, तो यहां एक स्लाइडशेयर पीपीटी है जिसे आप देख सकते हैं:

मूल्य शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति क्षमताओं, दृष्टिकोण, मूल्यों के साथ-साथ उस समाज के आधार पर सकारात्मक मूल्यों के व्यवहार के अन्य रूपों को विकसित करता है।

शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक पहलुओं में अपने व्यक्तित्व विकास के लिए दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए मूल्य शिक्षा आवश्यक है। यह छात्रों को उनके भविष्य को आकार देने के लिए एक सकारात्मक दिशा प्रदान करता है, जिससे उन्हें अधिक जिम्मेदार और समझदार बनने और अपने जीवन के उद्देश्य को समझने में मदद मिलती है।

मान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे हमें विकसित होने और हमारी मान्यताओं, दृष्टिकोण और व्यवहार को विकसित करने और मार्गदर्शन करने में मदद करते हैं। हमारे मूल्य हमारे निर्णय लेने में परिलक्षित होते हैं और हमें जीवन में अपना वास्तविक उद्देश्य खोजने में मदद करते हैं और एक जिम्मेदार और विकसित व्यक्ति बन जाते हैं।

उम्मीद हैं कि मूल्य शिक्षा के इस ब्लॉग से आपकी इसके बारे में सारी जानकारी मिल गई होगी। अगर आप विदेश में पढ़ाई करना चाहते है तो आज ही हमारे  Leverage Edu  के एक्सपर्ट्स से  1800 572 000  पर कॉल करके 30 मिनट का फ्री सेशन बुक कीजिए।

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अमन जी, आपका धन्यवाद, ऐसे ही अन्य ज्ञानवर्धक लेख पढ़ने के लिए हमारी वेबसाइट पर बनें रहे।

Value education is the most important thing because they help us grow and develop and guide our beliefs, attitudes and behaviour. Thank you for sharing.

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Choice of higher education in India and its determinants

Directions of change in higher education in india: from massification to universalization, changing higher education in india, overcoming barriers to inclusion in education in india: a scoping review, the dynamics of union-state relations and higher education in india, engineering education in india, medical education in india during the covid-19 pandemic, higher education in india in the time of pandemic, sans a learning management system.

Higher education in India was caught completely unawares by the COVID-19 pandemic and the necessitated closure of educational institutions. Despite almost a decade of experience with online and distance learning at some top-tier and private institutions, the vast majority were unprepared and looked for quick solutions for different components of teaching–learning depending on the need of the hour. The immediate tool sought was a videoconferencing platform to substitute in-class lectures. With no access to a learning management system, faculty chose one platform for videoconferencing, one for interaction with students, and another for uploading class notes. Disparity in students’ access to devices and the internet presented challenges. Assessment of learning, which hitherto was largely pen and paper based, was delayed for lack of a viable solution. Experiences documented in this study demonstrate faculty resilience, but lack of institutional leadership and preparedness is starkly evident.

Privatisation of Higher Education in India

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