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शोध परिकल्पना - परिभाषा, प्रकृति और प्रकार - Research Hypothesis – Definition, Nature and Types

 शोध परिकल्पना - परिभाषा, प्रकृति और प्रकार - research hypothesis – definition, nature and types,   शोध परिकल्पना.

 परिकल्पना अनुसन्धान का एक प्रमुख एवं लाभदायक एवं उपयोगी हिस्सा है एक परिकल्पना के पीछे एक अच्छा अनुसन्धान छिपा होता है। बिना परिकल्पना के अनुसन्धा उद्देश्यहीन तथा बिन्दुहीन होता जाता है। बिना किसी अच्छे अर्थ के परिणाम अच्छे नहीं मिलते हैं इसलिये परिकल्पना का आकार मिश्रित तथा कठिन तथा लाभ से परिपूर्ण होता है। परिकल्पना का स्वरूप बड़ा एवं करीब होने पर इसके आकार को रद्दो बदल कर अनुसन्धान के अनुसार घटाया बढ़ाया जाता है। ऐसा नहीं किया जायेगा तो अनुसन्धानकर्ता अनावश्यक एवं तथ्यहीन आंकड़ों का प्रयोग किया जाता है।

शोध परिकल्पना :

परिकल्पना शब्द परि + कल्पना दो शब्दों से मिलकर बना है। परि का अर्थ चारो ओर तथा कल्पना का अर्थ चिन्तन है। इस प्रकार परिकल्पना से तात्पर्य किसी समस्या से सम्बन्धित समस्त सम्भावित समाधान पर विचार करना है।

परिकल्पना किसी भी अनुसन्धान प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण स्तम्भ है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी समस्या के विश्लेषण और परिभाषीकरण के पश्चात् उसमें कारणों तथा कार्य कारण सम्बन्ध में पूर्व चिन्तन कर लिया गया है, अर्थात् अमुक समस्या का यह कारण हो सकता है, यह निश्चित करने के पश्चात उसका परीक्षण प्रारम्भ हो जाता है। अनुसंधान कार्य परिकल्पना के निर्माण और उसके परीक्षण के बीच की प्रक्रिया है। परिकल्पना के निर्माण के बिना न तो कोई प्रयोग हो सकता है और न कोई वैज्ञानिक विधि के अनुसन्धान ही सम्भव है। वास्तव में परिकल्पना के अभाव में अनुसंधान कार्य एक उद्देश्यहीन क्रिया है।

  परिकल्पना की परिभाषा :

परिकल्पना की परिभाषा से समझने के लिए कुछ विद्वानों की परिभाषाओं को समझना आवश्यक है। जो निम्न है। 

करलिंगर ( Kerlinger) - "परिकल्पना को दो या दो से अधिक चरों के मध्य सम्बन्धों का कथन मानते हैं।"

मोले (George G. Mouley ) - "परिकल्पना एक धारणा अथवा तर्कवाक्य है जिसकी स्थिरता की परीक्षा उसकी अनुरूपता, उपयोग, अनुभव-जन्य प्रमाण तथा पूर्व ज्ञान के आधार पर करना है।"

गुड तथा हैट (Good & Hatt ) - "परिकल्पना इस बात का वर्णन करती है कि हम क्या देखना चाहते है। परिकल्पना भविष्य की ओर देखती है। यह एक तर्कपूर्ण कथन है जिसकी वैद्यता की परीक्षा की जा सकती है। यह सही भी सिद्ध हो सकती है, और गलत भी।"

लुण्डबर्ग (Lundberg ) - "परिकल्पना एक प्रयोग सम्बन्धी सामान्यीकरण है जिसकी वैधता की जाँच होती है। अपने मूलरूप में परिकल्पना एक अनुमान अथवा काल्पनिक विचार हो सकता है जो आगे के अनुसंधान के लिये आधार बनता है।"

मैकगुइन (Mc Guigan ) - "परिकल्पना दो या अधिक चरों के कार्यक्षम सम्बन्धों का परीक्षण योग्य कथन है।

अतः उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि परिकल्पना किसी भी समस्या के लिये सुझाया गया वह उत्तर है जिसकी तर्कपूर्ण वैधता की जाँच की जा सकती है। यह दो या अधिक चरों के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध है ये इंगित करता है तथा ये अनुसन्धान के विकास का उद्देश्यपूर्ण आधार भी है।

परिकल्पना की प्रकृति :

किसी भी परिकल्पना की प्रकर्षत निम्न रूप में हो सकती है। -

1. यह परीक्षण के योग्य होनी चाहिये ।

2. इसह शोध को सामान्य से विशिष्ट एवं विस्तृत से सीमित की ओर केन्द्रित करना चाहिए।

3. इससे शोध प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर मिलना चाहिए।

4. यह सत्याभासी एवं तर्कयुक्त होनी चाहिए।

5. यह प्रकर्षत के ज्ञात नियमों के प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए।

परिकल्पना के स्रोत :

परिकल्पनाओं के मुख्य स्रोत निम्नवत है।

समस्या से सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन

समस्या सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन करके उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण किया जा सकता है।

विज्ञान -

विज्ञान से प्रतिपादित सिद्धान्त परिकल्पनाओं को जन्म देते हैं।

संस्कृति -

संस्कृति परिकल्पना की जननी हो सकती है। प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार की संस्कृति होती है। प्रत्येक संस्कृति सामाजिक एवं सांस्कर्षतिक मूल्यों में एक दूसरे से भिन्न होती है ये भिन्नता का आधार अनेक समस्याओं को जन्म देता है और जब इन समस्याओं से सम्बन्धित चिंतन किया जाता है तो परिकल्पनाओं का जन्म होता है।

व्यक्तिगत अनुभव

व्यक्तिगत अनुभव भी परिकल्पना का आधार होता है, किन्तु नये अनुसंध नकर्ता के लिये इसमें कठिनाई है। किसी भी क्षेत्र में जिनका अनुभव जितना ही सम्पन्न होता है, उन्हें समस्या के ढूँढ़ने तथा परिकल्पना बनाने में उतनी ही सरलता होती है।

  रचनात्मक चिंतन -

यह परिकल्पना के निर्माण का बहुत बड़ा आधार है। मुनरो ने इस पर विशेष बल दिया है। उन्होने इसके चार पद बताये हैं (i) तैयारी

 (ii) विकास

 (iii) प्रेरणा और

 (iv) परीक्षण | अर्थात किसी विचार के आने पर उसका विकास

किया, उस पर कार्य करने की प्रेरणा मिली, परिकल्पना निर्माण और परीक्षण किया।

अनुभवी व्यक्तियों से परिचर्चा -

अनुभवी एवं विषय विशेषज्ञों से परिचर्चा एवं मार्गदर्शन प्राप्त कर उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण किया जा सकता है।

  पूर्व में हुए अनुसंधान

सम्बन्धित क्षेत्र के पूर्व अनुसंधानों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि किस प्रकार की परिकल्पना पर कार्य किया गया है। उसी आधार पर नयी परिकल्पना का सब्जन किया जा सकता है।

उत्तम परिकल्पना की विशेषताएं या कसौटी :

एक उत्तम परिकल्पना की निम्न विशेषतायें होती हैं -

परिकल्पना जाँचनीय हो 

एक अच्छी परिकल्पना की पहचान यह है कि उसका प्रतिपादन इस ढंग से किया जाये कि उसकी जाँच करने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सके कि परिकल्पना सही है या गलत । इसके लिये यह आवश्यक है कि परिकल्पना की अभिव्यक्ति विस्तष्त ढ़ंग से न करके विशिष्ट ढंग से की जाये। अतः जाँचनीय परिकल्पना वह परिकल्पना है जिसे विश्वास के साथ कहा जाय कि वह सही है या गलत ।

परिकल्पना मितव्ययी हो

परिकल्पना की मितव्ययिता से तात्पर्य उसके ऐसे स्वरूप से है जिसकी जाँच करने में समय, श्रम एवं धन कम से कम खर्च हो और सुविधा अधिक प्राप्त हो।

परिकल्पना को क्षेत्र के मौजूदा सिद्धान्तों तथा तथ्यों से सम्बन्धित होना चाहिए

कुछ परिकल्पना ऐसी होती है जिनमें शोध समस्या का उत्तर तभी मिल पाता है जब अन्य कई उप कल्पनायें (Sub-hypothesis) तैयार कर ली जाये। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि उनमें तार्किक पूर्णता तथा व्यापकता के आधार के अभाव होते हैं जिसके कारण वे स्वयं कुछ नयी समस्याओं को जन्म दे देते हैं और उनके लिये उपकल्पनायें तथा तदर्थ पूर्वकल्पनायें (adhoc assumptions) तैयार कर लिया जाना आवश्यक हो जाता है। ऐसी स्थिति में हम ऐसी अपूर्ण परिकल्पना की जगह तार्किक रूप से पूर्ण एवं व्यापक परिकल्पना का चयन करते हैं।

परिकल्पना को किसी न किसी सिद्धान्त अथवा तथ्य अथवा अनुभव पर आधारित होना चाहिये

• परिकल्पना कपोल कल्पित अथवा केवल रोचक न हो। अर्थात् परिकल्पना ऐसी बातों पर आधारित न हो जिनका कोई सैद्धान्तिक आधार न हो। जैसे - काले रंग के लोग गोरे रंग के लोगों की अपेक्षा अधिक विनम्र होते हैं। इस प्रकार की परिकल्पना आधारहीन परिकल्पना है क्योंकि यह किसी सिद्धान्त या मॉडल पर आधारित नहीं है।

परिकल्पना द्वारा अधिक से अधिक सामान्यीकरण किया जा सके

परिकल्पना का अधिक से अधिक सामान्यीकरण तभी सम्भव है जब परिकल्पना न तो बहुत व्यापक हो और न ही बहुत विशिष्ट हो किसी भी अच्छी परिकल्पना को संकीर्ण ( narrow) होना चाहिये ताकि उसके द्वारा किया गया सामान्यीकरण उचित एवं उपयोगी हो ।

परिकल्पना को संप्रत्यात्मक रूप से स्पष्ट होना चाहिए

संप्रत्यात्मक रूप से स्पष्ट होने का अर्थ है परिकल्पना व्यवहारिक एवं वस्तुनिष्ठ ढंग से परिभाषित हो तथा उसके अर्थ से अधिकतर लोग सहमत हों । ऐसा न हो कि परिभाषा सिर्फ व्यक्ति की व्यक्गित सोच की उपज हो तथा जिसका अर्थ सिर्फ वही समझता हो।

इस प्रकार हम पाते हैं कि शोध मनोवैज्ञानिक ने शोध परिकल्पना की कुछ ऐसी कसौटियों या विशेषताओं का वर्णन किया है जिसके आधार पर एक अच्छी शोध परिकल्पना की पहचान की जा सकती है।

परिकल्पना के प्रकार 

मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्र तथा शिक्षा के क्षेत्र में शोधकर्ताओं द्वारा बनायी गयी परिकल्पनाओं के स्वरूप पर यदि ध्यान दिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि उसे कई प्रकारों में बाँटा जा सकता है। शोध विशेषज्ञों ने परिकल्पना का वर्गीकरण निम्नांकित तीन आधारों पर किया है -

चरों की संख्या के आधार पर -

साधारण परिकल्पना साधारण परिकल्पना से तात्पर्य उस परिकल्पना - से है जिसमें चरों की संख्या मात्र दो होती है और इन्ही दो चरों के बीच के सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण स्वरूप बच्चों के सीखने में पुरस्कार का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यहाँ सीखना तथा पुरस्कार दो चर है जिनके बीच एक विशेष सम्बन्ध की चर्चा की है। इस प्रकार परिकल्पना साधारण परिकल्पना कहलाती है।

जटिल परिकल्पना - जटिल परिकल्पना से तात्पर्य उस परिकल्पना से है जिसमें दो से अधिक चरों के बीच आपसी सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। जैसे- अंग्रेजी माध्यम के निम्न उपलब्धि के विद्यार्थियों का व्यक्तित्व हिन्दी माध्यम के उच्च उपलब्धि के विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक परिपक्व होता है । इस परिकल्पना में हिन्दी अंग्रेजी माध्यम निम्न उच्च उपलब्धि स्तर एवं व्यक्तित्व तीन प्रकार के चर सम्मिलित हैं अतः यह एक जटिल परिकल्पना का उदाहरण है।

  चरों की विशेष सम्बन्ध के आधार पर

मैक्ग्यूगन ने (Mc. Guigan, 1990) ने इस कसौटी के आधार पर परिकल्पना के मुख्य दो प्रकार बताये हैं।

Ii) सार्वत्रिक या सार्वभौमिक परिकल्पना -

 सार्वत्रिक परिकल्पना से स्वयम् स्पष्ट होता है कि ऐसी परिकल्पना जो हर क्षेत्र और समय में समान रूप से व्याप्त हो अर्थात् परिकल्पना का स्वरूप ऐसा हो जो निहित चरों के सभी तरह के मानों के बीच के सम्बन्ध को हर परिस्थित में हर समय बनाये रखे। उदाहरण स्वरूप- पुरस्कार देने से सीखने की प्रक्रिया में तेजी आती है। यह एक ऐसी परिकल्पना है जिसमें बताया गया सम्बन्ध अधिकांश परिस्थितियों में लागू होता है।

(ii) अस्तित्वात्मक परिकल्पना

 इस प्रकार की परिकल्पना यदि सभी - व्यक्तियों या परिस्थितियों के लिये नही तो कम से कम एक व्यक्ति या परिस्थिति के लिये निश्चित रूप से सही होती है। जैसे सीखने की प्रक्रिया में कक्षा में कम से कम एक बालक ऐसा है पुरस्कार की बजाय दण्ड से सीखता है इस प्रकार की परिकल्पना अस्तित्वात्मक परिकल्पना है।

विशिष्ट उद्देश्य के आधार पर

विशिष्ट उद्देश्य के आधार पर परिकल्पना के निम्न तीन प्रकार है।

(i) शोध परिकल्पना - इसे कार्यरूप परिकल्पना या कार्यात्मक परिकल्पना भी कहते हैं। ये परिकल्पना किसी न किसी सिद्धान्त पर आधारित या प्रेरित होती है। शोधकर्ता इस परिकल्पना की उदघोषणा बहुत ही विश्वास के साथ करता है तथा उसकी यह अभिलाषा होती है कि उसकी यह परिकल्पना सत्य सिद्ध हो उदाहरण के लिये 'करके सीखने' से प्राप्त अधिगम अधिक सुदृढ़ होता है और अधिक समय तक टिकता है।' चूँकि इस परिकल्पना में कथन 'करके सीखने के सिद्वान्त पर आधारित है अतः ये एक शोध परिकल्पना है।

शोध परिकल्पना दो प्रकार की होती है- 

दिशात्मक एवं अदिशात्मक | 

दिशात्मक परिकल्पना में परिकल्पना किसी एक दिशा अथवा दशा की ओर इंगित करती है जब कि अदिशात्मक परिकल्पना में ऐसा नही होता है।

उदाहरण- "विज्ञान वर्ग के छात्रों की बुद्धि एवं कला वर्ग के छात्रों की बुद्धि में अन्तर है।"

उपरोक्त परिकल्पना अदिशात्मक परिकल्पना का उदाहरण हैं।

क्योंकि बुद्धि में अन्तर किसका कम या ज्यादा है इस ओर संकेत नहीं किया गया। इसी परिकल्पना को यदि इस प्रकार लिखा जाय कि विज्ञान वर्ग के छात्रों की बुद्धि कला वर्ग के छात्रों की अपेक्षा कम होती है अथवा कला वर्ग के छात्रों की बुद्धि विज्ञान वर्ग के छात्रों की बुद्धि से कम है तो यह एक दिशात्मक शोध परिकल्पना होगी क्योंकि इसमें कम या अ क एक दिशा की ओर संकेत किया गया है।

(ii) शून्य परिकल्पना 

शून्य परिकल्पना शोध परिकल्पना के ठीक विपरीत होती है। इस परिकल्पना के माध्यम से हम चरों के बीच कोई अन्तर नहीं होने के संबंध का उल्लेख करते हैं। उदाहरण स्वरूप उपरोक्त परिकल्पना को नल परिकल्पना के रूप में निम्न रूप से लिखा जा सकता है विज्ञान वर्ग के छात्रों की बुद्धि लब्धि एंव कला वर्ग के छात्रों की बुद्धि लब्धि में कोई अंतर नहीं है। एक अन्य उदाहरण में यदि शोध परिकल्पना यह है कि, "व्यक्ति सूझ द्वारा प्रयत्न और भूल की अपेक्षा जल्दी सीखता है तो इस परिकल्पना की शून्य परिकल्पना यह होगी कि 'व्यक्ति सूझ द्वारा प्रयत्न और भूल की अपेक्षा जल्दी नहीं सीखता है। अतः उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से शून्य अथवा नल परिकल्पना को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

(iii) सांख्यिकीय परिकल्पना

 जब शोध परिकल्पना या शून्य परिकल्पना - का सांख्यिकीय पदों में अभिव्यक्त किया जाता है तो इस प्रकार की परिकल्पना सांख्यिकीय परिकल्पना कहलाती है। शोध परिकल्पना अथवा सांख्यिकीय परिकल्पना को सांख्यिकीय पदों में व्यक्त करने के लिये विशेष संकेतों का प्रयोग किया जाता है। शोध परिकल्पना के लिये H, तथा शून्य परिकल्पना के लिये H का प्रयोग होता है तथा माध्य के लिये X का प्रयोग किया जाता है।

उदाहरण- यदि शोध परिकल्पना यह है कि समूह 'क' बुद्धिलब्धि में समूह 'ख' से श्रेष्ठ है तो इसकी सांख्यिकीय परिकल्पना H तथा H के पदों में निम्नानुसार होगी -

H1 :  Xa > Xb

H0 : Xa = Xb

यहाँ पर माध्य X का प्रयोग इसलिये किया गया है क्योंकि एक दूसरे से बुद्धि लब्धि की श्रेष्ठता जानने के लिये दोनो समूहों की बुद्धि लब्धि का मध्यमान जानना होगा जिसके आधार पर श्रेष्ठता की माप की जा सकेगी।

इस प्रकार एक अन्य उदाहरण में यदि शोध परिकल्पना यह है कि समूह क की बुद्धि लब्धि एवं समूह 'ख' की बुद्धि लब्धि में अन्तर है तो इसकी H एवं H, इस प्रकार होगी।

H1 : Xa "" X b

H0 : Xa = X b

इस प्रकार विभिन्न प्रकार से शोध परिकल्पना का वर्गीकरण किया जा सकता है।

परिकल्पना के कार्य

अनुसन्धान कार्य में परिकल्पना के निम्नांकित कार्य है :

दिशा निर्देश देना

परिकल्पना अनुसंधानकता को निर्देशित करती है। इससे यह ज्ञात होता है कि अनुसन्धान कार्य में कौन कौन सी क्रियायें करती हैं एवं कैसे करनी है। अतः परिकल्पना के उचित निर्माण से कार्य की स्पष्ट दिशा निश्चित हो जाती है।

प्रमुख तथ्यों का चुनाव करना

परिकल्पना समस्या को सीमित करती है तथा महत्वपूर्ण तथ्यों के चुनाव में सहायता करती है। किसी भी क्षेत्र में कई प्रकार की समस्यायें हो सकती है लेकिन हमें अपने अध्ययन में उन समस्याओं में से किन पर अध्ययन करना है उनका चुनाव और सीमांकन परिकल्पना के माध्यम से ही होता है।

पुनरावृत्ति को सम्भव बनाना

पुनरावृत्ति अथवा पुनः परीक्षण द्वारा अनुसन्धान के निष्कर्ष की सत्यता का मूल्यांकन किया जाता है। परिकल्पना के अभाव में यह पुनः परीक्षण असम्भव होगा क्यों कि यह ज्ञात ही नहीं किया जा सकेगा किस विशेष पक्ष पर कार्य किया गया है तथा किसका नियंत्रण करके किसका अवलोकन किया गया है।

निष्कर्ष निकालने एवं नये सिद्धान्तों के प्रतिपादन करना -

परिकल्पना अनुसंधानकर्ता को एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचने में सहायता करती है तथा जब कभी कभी मनोवैज्ञानिकों को यह विश्वास के साथ पता होता है कि अमुक घटना के पीछे क्या कारा है तो वह किसी सिद्धान्त की पष्ठभूमि की प्रतीक्षा किये बिना परिकल्पना बनाकर जाँच लेते हैं। परिकल्पना सत्य होने पर फिर वे अपनी पूर्वकल्पनाओं परिभाषाओं और सम्प्रत्ययों को तार्किक तंत्र में बांधकर एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन कर देते है।

अतः उपरोक्त वर्णन के आधार पर हम परिकल्पनाओं के क्या मुख्य कार्य है आदि की जानकारी स्पष्ट रूप से प्राप्त कर सकते हैं. किसी भी शोध परिकल्पना से तात्पर्य समस्या समाधान के लिये सुझाया गया वो उत्तर हैं जो दो या दो से अधिक चरों के बीच क्या और कैसा सम्बन्ध T है बताता है। शोध परिकल्पना को प्राप्त करने के कई स्रोत है व्यक्ति अपने आस-पास के वातावरण के प्रति सजग रहकर अपनी सूझ द्वारा इसे आसानी से प्राप्त कर सकता है। उत्तम परिकल्पनाओं की विशेषताओं पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। साथ ही परिकल्पनाओं के प्रकार को भी समझाया गया है।

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Hypothesis या परिकल्पना क्या है? प्रकृति, स्रोत, विशेषताएं, प्रकार व कार्य 

परिकल्पना शब्द परि + कल्पना दो शब्दों से मिलकर बना है। परि का अर्थ चारो ओर तथा कल्पना का अर्थ चिन्तन है। इस प्रकार परिकल्पना से तात्पर्य किसी समस्या से सम्बन्धित समस्त सम्भावित समाधान पर विचार करना है। परिकल्पना (Hypothesis) किसी भी अनुसन्धान प्रक्रिया का दूसरा महत्वपूर्ण स्तम्भ है।

परिकल्पना क्या है? (What is Hypothesis)

इसका तात्पर्य यह है कि किसी समस्या के विश्लेषण और परिभाशीकरण के पश्चात उसमें कारणों तथा कार्य कारण सम्बन्ध में पूर्व चिन्तन कर लिया गया है, अर्थात् अमुक समस्या का यह कारण हो सकता है, यह निश्चित करने के पष्चात उसका परीक्षण प्रारम्भ हो जाता है। अनुसंधान कार्य परिकल्पना के निर्माण और उसके परीक्षण के बीच की प्रक्रिया है। परिकल्पना के निर्माण के बिना न तो कोई प्रयोग हो सकता है और न कोई वैज्ञानिक विधि के अनुसन्धान ही सम्भव है। वास्तव में परिकल्पना के अभाव में अनुसंधान कार्य एक उद्देश्यहीन क्रिया है। 

परिकल्पना की परिभाषा (Definition of Hypothesis)

परिकल्पना की परिभाषा से समझने के लिए कुछ विद्वानों की परिभाषाओं केा समझना आवश्यक है। जो है –

करलिंगर (Kerlinger) –  ‘‘परिकल्पना केा दो या दो से अधिक चरों के मध्य सम्बन्धों का कथन मानते हैं। ’’ 

मोले (George G. Mouley ) –  ‘‘परिकल्पना एक धारणा अथवा तर्कवाक्य है जिसकी स्थिरता की परीक्षा उसकी अनुरूपता, उपयोग, अनुभव-जन्य प्रमाण तथा पूर्व ज्ञान के आधार पर करना है। ’’ 

गुड तथा हैट (Good & Hatt ) –  ‘‘परिकल्पना इस बात का वर्णन करती है कि हम क्या देखना चाहते है। परिकल्पना भविश्य की ओर देखती है। यह एक तर्कपूर्ण कथन है जिसकी वैद्यता की परीक्षा की जा सकती है। यह सही भी सिद्ध हो सकती है, और गलत भी।

लुण्डबर्ग (Lundberg ) –  ‘‘परिकल्पना एक प्रयोग सम्बन्धी सामान्यीकरण है जिसकी वैधता की जॉच हेाती है। अपने मूलरूप में परिकल्पना एक अनुमान अथवा काल्पनिक विचार हो सकता है जो आगे के अनुसंधान के लिये आधार बनता है। ’’ 

मैकगुइन (Mc Guigan ) –  ‘‘परिकल्पना दो या अधिक चरों के कार्यक्षम सम्बन्धों का परीक्षण योग्य कथन है।

परिकल्पना की प्रकृति (Nature of Hypothesis)

किसी भी परिकल्पना की प्रकृति रूप में हो सकती है –

  • यह परीक्षण के योग्य होनी चाहिये।
  • इसह शोध को सामान्य से विशिष्ट एवं विस्तृत से सीमित की ओर केन्द्रित करना चाहिए।
  • इससे शोध प्रश्नों का स्पष्ट उत्तर मिलना चाहिए।
  • यह सत्याभासी एवं तर्कयुक्त होनी चाहिए।
  • यह प्रकृति के ज्ञात नियमों के प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए।

परिकल्पना के स्रोत (Source of Hypothesis)

1. समस्या से सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन

समस्या से सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन करके उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण किया जा सकता है।

विज्ञान से प्रतिपादित सिद्धान्त परिकल्पनाओं को जन्म देते हैं।

3. संस्कृति  

संस्कृति परिकल्पना की जननी हो सकती है। प्रत्येक समाज में विभिन्न प्रकार की संस्कृति होती है। प्रत्येक संस्कृति सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में एक दूसरे से भिन्न होती है ये भिन्नता का आधार अनेक समस्याओं को जन्म देता है और जब इन समस्याओं से सम्बन्धित चिंतन किया जाता है तो परिकल्पनाओं का जन्म होता है।

4. व्यक्तिगत अनुभव  

व्यक्तिगत अनुभव भी परिकल्पना का आधार हेाता है, किन्तु नये अनुसंध् ाानकर्ता के लिये इसमें कठिनाई है। किसी भी क्षेत्र में जिनका अनुभव जितना ही सम्पन्न होता है, उन्हें समस्या के ढूँढ़ने तथा परिकल्पना बनाने में उतनी ही सरलता होती है।

5. रचनात्मक चिंतन

यह परिकल्पना के निर्माण का बहुत बड़ा आधार है। मुनरो ने इस पर विशेष बल दिया है। उन्होने इसके चार पद बताये हैं – (i) तैयारी (ii) विकास (iii) प्रेरणा और (iv) परीक्षण। अर्थात किसी विचार के आने पर उसका विकास किया, उस पर कार्य करने की प्रेरणा मिली, परिकल्पना निर्माण और परीक्षण किया।

6. अनुभवी व्यक्तियों से परिचर्चा

अनुभवी एवं विषय विशेषज्ञों से परिचर्चा एवं मार्गदर्शन प्राप्त कर उपयुक्त परिकल्पना का निर्माण किया जा सकता है।

7. पूर्व में हुए अनुसंधान

सम्बन्धित क्षेत्र के पूर्व अनुसंधानों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि किस प्रकार की परिकल्पना पर कार्य किया गया है। उसी आधार पर नयी परिकल्पना का सर्जन किया जा सकता है।

उत्तम परिकल्पना की विशेषताएं या कसौटी (Characteristics of a good Hypothesis)

1. परिकल्पना जाँचनीय हो

एक अच्छी परिकल्पना की पहचान यह है कि उसका प्रतिपादन इस ढ़ंग से किया जाये कि उसकी जाँच करने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सके कि परिकल्पना सही है या गलत । इसके लिये यह आवश्यक है कि परिकल्पना की अभिव्यक्ति विस्तश्त ढ़ंग से न करके विषिश्ट ढ़ंग से की जाये। अत: जॉँचनीय परिकल्पना वह परिकल्पना है जिसे विष्वास के साथ कहा जाय कि वह सही है या गलत।

2. परिकल्पना मितव्ययी हो

परिकल्पना की मितव्ययिता से तात्पर्य उसके ऐसे स्वरूप से है जिसकी जाँच करने में समय, श्रम एवं धन कम से कम खर्च हो और सुविधा अधिक प्राप्त हो।

3. परिकल्पना को क्षेत्र के मौजूदा सिद्धान्तों तथा तथ्यों से सम्बन्धित होना चाहिए

कुछ परिकल्पना ऐसी होती है जिनमें शोध समस्या का उत्तर तभी मिल पाता है जब अन्य कई उप कल्पनायें (Sub-hypothesis) तैयार कर ली जाये। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि उनमें तार्किक पूर्णता तथा व्यापकता के आधार के अभाव होते हैं जिसके कारण वे स्वयं कुछ नयी समस्याओं केा जन्म दे देते हैं और उनके लिये उपकल्पनायें तथा तदर्थ पूर्वकल्पनायें (adhoc assumptions) तैयार कर लिया जाना आवश्यक हो जाता है।

4. परिकल्पना को किसी न किसी सिद्धान्त अथवा तथ्य अथवा अनुभव पर आधारित होना चाहिये

परिकल्पना कपोल कल्पित अथवा केवल रोचक न हो। अर्थात् परिकल्पना ऐसी बातों पर आधारित न हो जिनका केाई सैद्धान्तिक आधार न हो। जैसे – काले रंग के लोग गोरे रंग के लोगों की अपेक्षा अधिक विनम्र होते हैं। इस प्रकार की परिकल्पना आधारहीन परिकल्पना है क्योंकि यह किसी सिद्धान्त या मॉडल पर आधारित नहीं है।

5. परिकल्पना द्वारा अधिक से अधिक सामान्यीकरण किया जा सके

परिकल्पना का अधिक से अधिक सामान्यीकरण तभी सम्भव है जब परिकल्पना न तेा बहुत व्यापक हो और न ही बहुत विषिश्ट हो किसी भी अच्छी परिकल्पना को संकीर्ण ;दंततवूद्ध होना चाहिये ताकि उसके द्वारा किया गया सामान्यीकरण उचित एवं उपयोगी हो।

6. परिकल्पना को संप्रत्यात्मक रूप से स्पष्ट होना चाहिए

संप्रत्यात्मक रूप से स्पष्ट होने का अर्थ है परिकल्पना व्यवहारिक एवं वस्तुनिश्ठ ढ़ंग से परिभाशित हो तथा उसके अर्थ से अधिकतर लोग सहमत हों। ऐसा न हो कि परिभाषा सिर्फ व्यक्ति की व्यक्गित सोच की उपज हो तथा जिसका अर्थ सिर्फ वही समझता हो। इस प्रकार हम पाते हैं कि शोध मनोवैज्ञानिक ने शोध परिकल्पना की कुछ ऐसी कसौटियों या विशेषताओं का वर्णन किया हैे जिसके आधार पर एक अच्छी शोध परिकल्पना की पहचान की जा सकती है।

परिकल्पना के प्रकार (Types of Hypothesis)

मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्र तथा शिक्षा के क्षेत्र में शोधकर्ताओं द्वारा बनायी गयी परिकल्पनाओं के स्वरूप पर यदि ध्यान दिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि उसे कई प्रकारों में बाँटा जा सकता है। शोध विशेषज्ञों ने परिकल्पना का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया है –

चरों की सख्या के आधार पर

1. साधारण परिकल्पना

साधारण परिकल्पना से तात्पर्य उस परिकल्पना से है जिसमें चरों की संख्या मात्र दो होती है और इन्ही दो चरों के बीच के सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण स्वरूप बच्चों के सीखने में पुरस्कार का सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यहाँ सीखना तथा पुरस्कार दो चर है जिनके बीच एक विशेष सम्बन्ध की चर्चा की है। इस प्रकार परिकल्पना साधारण परिकल्पना कहलाती है।

2. जटिल परिकल्पना

जटिल परिकल्पना से तात्पर्य उस परिकल्पना से हेै जिसमें दो से अधिक चरों के बीच आपसी सम्बन्ध का अध्ययन किया जाता है। जैसे- अंग्रेजी माध्यम के निम्न उपलब्धि के विद्यार्थियों का व्यक्तित्व हिन्दी माध्यम के उच्च उपलब्धि के विद्यार्थियों की अपेक्षा अधिक परिपक्व होता है। इस परिकल्पना में हिन्दी अंग्रेजी माध्यम, निम्न उच्च उपलब्धि स्तर एवं व्यक्तित्व तीन प्रकार के चर सम्मिलित हैं अत: यह एक जटिल परिकल्पना का उदाहरण है।

चरों की विशेष सम्बन्ध के आधार पर 

मैक्ग्यूगन ने (Mc. Guigan, 1990) ने इस कसौटी के आधार पर परिकल्पना के मुख्य दो प्रकार बताये हैं-

1. सार्वत्रिक या सार्वभौमिक परिकल्पना

सार्वत्रिक परिकल्पना से स्वयम् स्पष्ट होता है कि ऐसी परिकल्पना जो हर क्षेत्र और समय में समान रूप से व्याप्त हो अर्थात् परिकल्पना का स्वरूप ऐसा हेा जो निहित चरों के सभी तरह के मानों के बीच के सम्बन्ध को हर परिस्थित में हर समय बनाये रखे। उदाहरण स्वरूप- पुरस्कार देने से सीखने की प्रक्रिया में तेजी आती है। यह एक ऐसी परिकल्पना हे जिसमें बताया गया सम्बन्ध अधिकांष परिस्थितियों में लागू होता है।

2. अस्तित्वात्मक परिकल्पना

इस प्रकार की परिकल्पना यदि सभी व्यक्तियों या परिस्थितियों के लिये नही तो कम से कम एक व्यक्ति या परिस्थिति के लिये नििष्च्त रूप से सही होती है। जैसे – सीखने की प्रक्रिया में कक्षा में कम से कम एक बालक ऐसा है पुरस्कार की बजाय दण्ड से सीखता है’ इस प्रकार की परिकल्पना अस्तित्वात्मक परिकल्पना है।

विशिष्ट उद्देश्य के आधार पर

विशिष्ट उद्देश्य के आधार पर परिकल्पना के तीन प्रकार है-

1. शोध परिकल्पना

इसे कायर्रूप परिकल्पना या कायार्त्मक परिकल्पना भी कहते हैं। ये परिकल्पना किसी न किसी सिद्धान्त पर आधारित या प्रेरित होती है। शोधकर्ता इस परिकल्पना की उद्घोशणा बहुत ही विष्वास के साथ करता है तथा उसकी यह अभिलाशा होती है कि उसकी यह परिकल्पना सत्य सिद्ध हो।

2. शून्य परिकल्पना

शून्य परिकल्पना शोध परिकल्पना के ठीक विपरीत होती है। इस परिकल्पना के माध्यम से हम चरों के बीच कोई अन्तर नहीं होने के संबंध का उल्लेख करते हैं।

3. सांख्यिकीय परिकल्पना 

जब शोध परिकल्पना या शून्य परिकल्पना का सांख्यिकीय पदों में अभिव्यक्त किया जाता है तो इस प्रकार की परिकल्पना सांख्यिकीय परिकल्पना कहलाती है। शोध परिकल्पना अथवा सांख्यिकीय परिकल्पना को सांख्यिकीय पदों में व्यक्त करने के लिये विशेष संकेतों का प्रयोग किया जाता है। शोध परिकल्पना के लिये H1 तथा शून्य परिकल्पना के लिये H0 का प्रयोग हेाता है तथा माध्य के लिये X का प्रयोग किया जाता है।  

परिकल्पना के कार्य (Works of Hypothesis)

1. दिशा निर्देश देना

परिकल्पना अनुसंधानकता को निर्देषित करती है। इससे यह ज्ञात होता है कि अनुसन्धान कार्य में कौन कौन सी क्रियायें करती हैं एवं कैसे करनी है। अत: परिकल्पना के उचित निर्माण से कार्य की स्पष्ट दिशा निश्चित हो जाती है।

2. प्र्रमुख तथ्यों का चुुनाव करना

परिकल्पना समस्या को सीमित करती है तथा महत्वपूर्ण तथ्यों के चुनाव में सहायता करती है। किसी भी क्षेत्र में कई प्रकार की समस्यायें हो सकती है लेकिन हमें अपने अध्ययन में उन समस्याओं में से किन पर अध्ययन करना है उनका चुनाव और सीमांकन परिकल्पना के माध्यम से ही होता है।

3. पुनरावृत्ति को सम्भव बनाना

पुनरावृत्ति अथवा पुन: परीक्षण द्वारा अनुसन्धान के निष्कर्ष की सत्यता का मूल्यांकन किया जाता है। परिकल्पना के अभाव में यह पुन: परीक्षण असम्भव होगा क्यों कि यह ज्ञात ही नही किया जा सकेगा किस विशेष पक्ष पर कार्य किया गया है तथा किसका नियंत्रण करके किसका अवलेाकन किया गया है।

4. निष्कर्ष निकालने एवं नये सिद्धान्तों के प्रतिपादन करना

परिकल्पना अनुसंधानकर्ता केा एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचने में सहायता करती है तथा जब कभी कभी मनोवैज्ञानिकों को यह विश्वास के साथ पता होता है कि अमुक घटना के पीछे क्या कारा है तो वह किसी सिद्धान्त की पश्श्ठभूमि की प्रतीक्षा किये बिना परिकल्पना बनाकर जॉच लेते हैं। परिकल्पना सत्य होने पर फिर वे अपनी पूर्वकल्पनाओं, परिभाषाओं और सम्प्रत्ययों को तार्किक तंत्र में बांधकर एक नये सिद्धान्त का प्रतिपादन कर देते है।

अत: उपरेाक्त वर्णन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि परिकल्पना किसी भी समस्या के लिये सुझाया गया वह उत्तर है जिसकी तर्कपूर्ण वैधता की जॉच की जा सकती है। यह दो या अधिक चरों के बीच किस प्रकार का सम्बन्ध है ये इंगित करता है तथा ये अनुसन्धान के विकास का उद्देश्यपूर्ण आधार भी है।

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Education Aacharya - एजुकेशन आचार्य

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Education Aacharya - एजुकेशन आचार्य

Synopsis / शोध प्रारूपिका (लघु शोध व शोध के विद्यार्थियों हेतु)

किसी भी क्षेत्र में शोध करने से पूर्व मनोमष्तिष्क में एक तूफ़ान एक हलचल महसूस होती है, शोध परिक्षेत्र की तलाश प्रारम्भ होती है, विषय की तलाश से लेकर परिणति तक का आयाम मुखर होने लगता है और इसी मनोवेग वैचारिक तूफ़ान को शोध एक सृजनात्मक आयाम देता है एवं अस्तित्व में आता है शोध प्रोपोज़ल या शोध प्रारूपिका। हमारे शोधार्थियों में इसके लिए शब्द प्रचलन में है: —- Synopsis.

शोध को क्रमबद्ध वैज्ञानिक स्वरुप देने हेतु लघुशोध व शोध के विद्यार्थी सरलता से कार्य कर सहजता से इस परिणति तक ले जा सकते हैं, Synopsis के चरणों(Steps) को इस प्रकार क्रम दिया जा सकता है –

1. प्रस्तावना 2. आवश्यकता क्यों? 3. समस्या 4.उद्देश्य 5.परिकल्पना 6. प्रतिदर्श 7. शोध विधि 8. शोध उपकरण 9. प्रयुक्त सांख्यिकीय विधि 10. परिणाम, निष्कर्ष एवं सुझाव 11. प्रस्तावित रूपरेखा (शोध स्वरूपानुसार)

1. प्रस्तावना(Introduction)-

जिस तरह रत्नगर्भा पृथ्वी के गर्भ से प्राप्त अयस्क परिशोधन से शुद्ध धात्वीय स्वरुप प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते तथ्य प्रगटन के लिए अपने परिशुद्ध स्वरुप को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और हम अपनी क्षमता के अनुसार उसे बोधगम्य बनाकर उसका प्रारम्भिक स्वरुप प्रस्तुत करते हैं जो मूलतः हमारे विषय से सम्बन्ध रखता है, शीर्षक से जुड़ाव का यह मुखड़ा, भूमिका या प्रस्तावना का स्वरुप लेता है इसके शब्द हमारी क्षमता अधिगम स्तर और प्रस्तुति कौशल के अनुसार अलग-अलग परिलक्षित होता है इसमें वह आलोक होता है जो हमारे शोध का उद्गार बनने की क्षमता रखता है।

2. आवश्यकता क्यों?(Importance)-

यह बिंदु विषय-वस्तु के महत्त्व को प्रतिपादित करता है और उस पर कार्य करने के औचित्य को सिद्ध करता है कि आखिर अमुक चर को या अमुक पात्र या विषय वस्तु को ही हमने अपने अध्ययन का आधार क्यों बनाया? हमें देश, काल, परिस्थितियों के आलोक में अपने विषय और उसी परिक्षेत्र पर कार्य करने की तीव्रता का परिचय कराना होता है इसे ऐसे शब्दों में लिखा जाना चाहिए कि पढ़ने वाला उसकी तीव्रता को महसूस कर सके और उसका मानस सहज रूप से आपके तर्कों का कायल हो जाए।

3. समस्या(Problem)-

यहाँ समस्या या समस्या कथन से आशय शोध के ‘शीर्षक’ से है। शीर्षक संक्षिप्त, सरल, सहज बोधगम्य व सार्थक भाव युक्त होना चाहिए अनावश्यक विस्तार या अत्यधिक कठिन शब्दों के प्रयोग से बचकर उसे अधिक पाठकों की बोधगम्यता परिधि में लाया जा सकता है यह शुद्ध व भाव स्पष्ट करने में समर्थ होना चाहिए। शोध स्वरूपानुसार इसका उपयुक्त चयन व शुद्ध निरूपण होना चाहिए।

4. उद्देश्य(Objectives)-

उद्देश्य बहुत सधे शब्दों में बिन्दुवार दिए जाने चाहिए। तुलनात्मक अध्ययन में निर्धारित चर के आधार पर न्यादर्श के प्रत्येक वर्ग का दुसरे से तुलनात्मक अध्ययन करना, उद्देश्य का अभीप्सित होगा यह शोधानुसार क्रमिक रूप से व्यवस्थित किए जा सकते हैं।

5. परिकल्पनाएं(Hypothesis)-

परिकल्पनाओं का स्वरुप शोध के स्वरुप पर अवलम्बित होता है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य परिकल्पना अस्तित्व में है लेकिन शोध हेतु शून्य परिकल्पना सर्वाधिक उत्तम रहती है, इसको भी क्रमवार तुलना के स्वरुप के आधार पर व्यवस्थित करते हैं। यदि ग्रुप ‘A’ और ग्रुप ‘B’ के लड़कों की ‘कम्प्यूटर के प्रति भय’ के आधार पर तुलना करनी हो तो इसे इस प्रकार लिखेंगे :

ग्रुप ‘A’ और ग्रुप ‘B’ के लड़कों में कम्प्यूटर के प्रति भय के आधार पर कोई सार्थक अन्तर नहीं है।

6. प्रतिदर्श(Sample)-

प्रतिदर्श या न्यादर्श शोध की प्रतिनिधिकारी जनसंख्या होती है यह समस्या के स्वरुप, शोधार्थी की क्षमता, समय व साधनों द्वारा निर्धारित होती है। शोध हेतु चयनित जनसंख्या का शोध स्वरूपानुसार विभिन्न वर्गों में वितरण कर लेते हैं जिससे परस्पर तुलना सुगम हो जाती है यह भी परिकल्पना निर्धारण में सहायक होती है।

7. शोध विधि(Research Method)-

इसका निर्धारण शोध शीर्षक के स्वरुप पर अवलम्बित होता है हिस्टॉरिकल रिसर्च या सर्वेक्षण आधारित शोध Synopsis के पूरे स्वरुप को प्रभावित करते हैं। शोध विधि, शोध की दिशा तय करने में सक्षम है।

8. शोध उपकरण(Research Tools)-

शोध स्वरूपानुसार ही इसकी आवश्यकता होती है कुछ प्रामाणिक शोध उपकरण मौजूद हैं एवं कभी आवश्यकता अनुसार खुद भी स्व आवाश्यक्तानुसार शोध उपकरण विकसित करना होता है। वर्णनात्मक शोध प्रबन्ध में इसकी आवश्यकता नहीं होती।

9. प्रयुक्त सांख्यिकीय विधि(Used Statistical Method)-

जिन शोध के प्राप्य समंक होते हैं उनसे किसी निष्कर्ष तक पहुँचने में शोध की प्रवृत्ति के अनुसार सांख्यिकी का प्रयोग करना होता है यहां केवल प्रयुक्त सूत्र एवं उसमे प्रयुक्त अक्षर का आशय लिखना समीचीन होगा।

10. परिणाम, निष्कर्ष एवं सुझाव(Result, Outcome & Suggestion)-

इस भाग में केवल इतना लिखना पर्याप्त होगा कि ‘प्रदत्तों का सांख्यकीय विश्लेषण से प्राप्त परिणामों के आधार पर निष्कर्ष निकाला जायेगा एवं भविष्य हेतु सुझाव सुनिश्चित किए जाएंगे।

11. प्रस्तावित रूपरेखा (शोध स्वरूपानुसार)(Proposed Framework)-

  • सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन
  • अध्ययन की योजना का प्रारूप
  • आकङों का विश्लेषण एवं विवेचन
  • शोध निष्कर्ष एवं सुझाव
जहां सांख्यिकीय विश्लेषण आवश्यक नहीं है उन वर्णनात्मक, ऐतिहासिक या विवेकनात्मक शोध में चतुर्थ अध्याय आवश्यकतानुसार परिवर्तनीय होगा।

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परिकल्पना अथवा हाइपोथिसिस क्या होती है । परिकल्पना का अर्थ एवं स्वरूप प्रकार | Hypothesis Definition Types in Hindi

  परिकल्पना   अथवा हाइपोथिसिस क्या होती है    what is hypothesis details  in hindi, परिकल्पना अथवा हाइपोथिसिस क्या है , परिकल्पना   अथवा हाइपोथिसिस-  प्रस्तावना ( introduction).

शोध-समस्या का अन्तिम रूप से निर्णय हो जाने के पश्चात् उसके समाधान की प्रक्रिया का आरंभ अर्थात् शोध-सामग्री का संग्रह किया जाना आरंभ होता है ,  परन्तु शोध-सामग्री का संग्रह आरंभ करने से पूर्व यह निश्चित कर लेना आवश्यक होता है कि इसके लिए किन दिशाओं में जाना होगा। इन दिशाओं की ओर संकेत करने वाले सूत्र उन परिकल्पनाओं में निहित रहते हैं ,  जिनका निर्माण अनुसंधानकर्ता अपने अध्ययनजनित ज्ञान ,  कल्पना एवं सृजनशीलता के आधार पर करता है। परिकल्पनाओं के अभाव में उसे शोध-सामग्री के संग्रह हेतु इधर-उधर भटकना पड़ेगा ,  जिससे उसके समय एवं शक्ति का अपव्यय होगा। अतः प्रायः सभी शोधकर्ता यह स्वीकार करते हैं कि जहाँ तक सम्भव हो ,  अनुसंधान का आरम्भ परिकल्पना से ही किया जाना चाहिए ,  क्योंकि वान डालेन के शब्दों में ,

  "  परिकल्पनाएँ अनुसंधान पथ में प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करती हैं " ।

परिकल्पना का अर्थ एवं स्वरूप  (Meaning and Structure of Hypothesis)

जब किसी व्यक्ति के समक्ष कोई कठिनाई उत्पन्न हो जाती है ,  तो वह उसके निवारण के उपाय भी सोचने लगता है। फलस्वरूप ,  जो उपाय उसके मस्तिष्क में आते हैं ,  वे ही समस्या के सम्भावित समाधान होते हैं। यह दूसरी बात है कि वे बाद में सत्य सिद्ध न हों अथवा सत्य सिद्ध हों।

उदाहरण के लिए ,  एक छात्र परीक्षा में बार-बार असफल घोषित होता है। इसका क्या कारण है ,  यह जानने के लिए अनुसंधान हेतु उसे मनोवैज्ञानिक को सौंप दिया जाता है। समस्या के समाधान हेतु मनोवैज्ञानिक उसके असफल होने के कारणों की कल्पना करता है।  

  • हो सकता है उसमें बुद्धि का अभाव हो।
  • हो सकता है वह पढ़ने-लिखने में पहले से ही कमजोर हो।
  • हो सकता है वह परीक्षा के समय अस्वस्थ हो गया हो ,  हो सकता है उसकी पढ़ने-लिखने में रुचि न हो। आदि  

कितनी ही परिकल्पनाएँ सम्भव हो सकती हैं। इनमें से कौन सत्य तथा कौन असत्य है ,  यह तो बाद में परीक्षण द्वारा ही पता लगेगा। इस प्रकार परिकल्पनाएँ एक प्रकार से समस्या के सम्भावित समाधान होती हैं।

यदि समस्या को प्रश्न के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। (जैसे ,  छात्र बार-बार असफल क्यों होता है ?)  तो ये परिकल्पनाएँ इस प्रश्न के सम्भावित उत्तर समझे जा सकते हैं ,  परन्तु वैज्ञानिक अनुसंधान का आरंभ इसी बिन्दु से होता है।

परिकल्पना अंग्रेजी भाषा के शब्द   ' हाइपोथिसिस ' (hypothesis)  का हिन्दी रूपांतर है ,  जिसका अर्थ है ऐसी मान्यता ( T hesis )  जो अभी अपुष्ट ( H ypo)  है।

हौडनेट के शब्दों में परिकल्पना अथवा हाइपोथिसिस

परिकल्पनाएँ शोधकर्ता की आँखें होती हैं जिनके द्वारा वह समस्यागत अव्यवस्था (अव्यवस्थित तथ्यों) में झाँककर देखता है तथा उनमें समस्या का समाधान खोजता है।

वान डालेन के अनुसार परिकल्पना अथवा हाइपोथिसिस

परिकल्पना शोधकर्ता का समस्या के समाधान अथवा समस्यात्मक प्रश्न के उत्तर के विषय में एक बुद्धिमत्तापूर्ण अनुमान ( intelligent guess)  होती है। वह परिकल्पना को समस्या का ऐसा समाधान मानते हैं ,  जो केवल एक सुझाव के रूप में होता है।  

परिकल्पना दो या दो से अधिक चरों के बीच संबंध के विषय में एक प्रकार का कल्पनाजन्य कथन होती है।  

जैसे बुद्धि बालकों की शैक्षिक उपलब्धि को प्रभावित करती है। यह एक परिकल्पना है। इसमें बुद्धि एवं शैक्षिक उपलब्धि के बीच एक विशिष्ट प्रकार के संबंध की कल्पना की गई है। जब कोई समस्या व्यक्ति के समक्ष उत्पन्न होती है और उसका समाधान खोजने का वह प्रयास करता है ,  तो पहले अपने ज्ञान ,  अनुभव ,  अध्ययन आदि के आधार पर कल्पना करता है कि उसका संभव समाधान क्या हो सकता है। इसी प्रकार जब किसी प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करता है ,  तो पहले कल्पना करता है कि उसका सम्भावित उत्तर क्या हो सकता है। इन सम्भावित समाधानों ,  सम्भावित उत्तरों को वह सामान्यानुमानों ( generalizations)  के रूप में प्रस्तुत करता है तथा बाद में यह परीक्षण करता है कि वे कहाँ तक सत्य हैं। ये सामान्यानुमान ही परिकल्पनाएँ कहलाती हैं।  

इस प्रकार बेस्ट ( 1977)  के शब्दों में  

परिकल्पना एक ऐसा पूर्वानुमान ( inference)  होती है ,  जिसका निर्माण वस्तुस्थिति ,  घटनाओं एवं परिस्थितियों की व्याख्या करने हेतु अस्थायी रूप से किया जाता है और जो अनुसंधान कार्य को आगे बढ़ाने में सहायता करती है अर्थात् बाद में परीक्षण के द्वारा यदि वह सत्यापित हो जाती है तो समस्या का समाधान हो जाता है तथा वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है।

प्रतिदिन ही हम अपने दैनिक जीवन में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान इसी प्रकार (अर्थात् परिकल्पना का निर्माण और फिर उसका परीक्षण) करते हैं।  

कमरे में जल रहा बल्ब अचानक बुझ जाता है ,

तुरंत व्यक्ति स्वयं से पूछता है  " क्या हुआ ?

एक समस्या उत्पन्न हुई है। इस समस्या का समाधान ,  उस प्रश्न का उत्तर पाने हेतु वह एक-एक परिकल्पना का निर्माण करता है और उसका परीक्षण करता है। अन्त में उसे वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है।  

पहले अनुमान लगाता है अर्थात् परिकल्पना का निर्माण करता है  "  सम्भवतः स्रोत से ही विद्युत गई है। "  वह बाहर निकल कर और घरों की ओर देखता है तथा पाता है कि और सबके घरों में तो बिजली आ रही है। अतः यह परिकल्पना असत्य सिद्ध हो जाती है  

तब दूसरी परिकल्पना करता है  "  अपने घर का ही फ्यूज तो नहीं उड़ गया " । वह कट आउट निकालकर फ्यूज का परीक्षण करता है तथा पाता है कि उसमें कोई खराबी नहीं है। यह परिकल्पना भी असत्य सिद्ध होती है।  

तब वह तीसरी परिकल्पना का निर्माण करता है  " बल्ब तो फ्यूज नहीं हो गया  " बल्ब    का परीक्षण करने पर पाता है कि वह फ्यूज हो गया है। यह परिकल्पना सत्य सिद्ध होती है।  

इससे बिन्दु पर पहुँचकर समस्या का समाधान भी हो सकता है तथा सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट हो जाती है। सभी समस्याओं के समाधान खोजने के पीछे यही प्रक्रिया रहती है तथा उसमें परिकल्पनाओं (पूर्वानुमानों ,  सम्भावित उत्तरों एवं समाधानों) की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अनुसंधान भी समस्या समाधान की ही एक विशिष्ट एवं वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। अत: अनुसंधान में भी परिकल्पनाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।जो ज्ञातव्य है ,  उसके विषय में   ' क्या है ', ' क्यों है '.  इस विषय में पूर्वानुमान लगाना ही परिकल्पना होती है।

परिकल्पना के प्रकार ( Types of Hypothesis)

सामान्यतः   परिकल्पना के छह रूप हैं और वे हैं-

1.     सरल परिकल्पना

2.     जटिल परिकल्पना

3.     दिशात्मक परिकल्पना

4.     गैर-दिशात्मक परिकल्पना

5.     शून्य परिकल्पना

6.     साहचर्य और आकस्मिक परिकल्पना

परिकल्पना का अर्थ एवं स्वरूप  प्रकार  

परिकल्पना का महत्व अथवा उद्देश्य अनुसंधान में परिकल्पना भूमिका  

परिकल्पना या उपकल्पना के प्रकार

उच्च शिक्षा प्रणाली-आधुनिक भारतीय विश्वविद्यालयों को संगठन और प्रशासन

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अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा

अनुक्रम (Contents)

अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा

अनुसंधान प्ररचना का अर्थ एवं परिभाषा- अनुसंधान प्ररचना शब्द समझने के लिये पहले ‘अनुसंधान’ तथा ‘प्ररचना’ शब्दों का अर्थ समझ लेना जरूरी है। सैल्टिज, जहोदा तथा अन्य के अनुसार “सामाजिक अनुसंधान का अर्थ सामाजिक घटनाओं तथा तथ्यों के बारे में नवीन जानकारी प्राप्त करना है अथवा पूर्व अर्जित ज्ञान में संशोधन, सत्यापन एवं संवर्द्धन करना है। एकोफ (Ackoff) ने प्ररचना शब्द की व्याख्या उपमा (Analogy) द्वारा की है। एक भवन निर्माणकर्ता भवन की प्ररचना पहले से ही बना लेता है कि यह कितना बड़ा होगा, इसमें कितने कमरे होगें, कौन सी सामग्री का प्रयोग इसमें किया जायेगा इत्यादि। ये सब निर्णय वह भवन निर्माण से पहले ही ले लेता है ताकि भवन के बारे में एक ‘नक्शा’ बना ले तथा यदि इसमें किसी प्रकार का संशोधन करना है तो निर्माण शुरु होने से पहले ही किया जा सके। ‘प्ररचना का अर्थ योजना बनाना है, अर्थात प्ररचना पूर्व निर्णय लेने की प्रक्रिया है ताकि परिस्थिति पैदा होने पर इसका प्रयोग किया जा सके। यह सूझ-बूझ एवं पूर्वानुमान की प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य अपेक्षित परिस्थिति पर नियंत्रण रखना है।” इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अनुसंधान की समस्या तथा उसमें प्रयुक्त होने वाली प्रविधियों पर नियंत्रण करने के लिये पूर्व निर्धारित निर्णयों की रूपरेखा ही अनुसंधान प्ररचना है।

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1. निदर्शन प्ररचना (Sampling Design) – इसमें अध्ययन की प्रकृति के अनुसार निदर्शन की इकाइयों के आकार तथा निदर्शन की पद्धति के बारे में पूर्व निर्णय लिया जाता है।

2. अवलोकनात्मक प्ररचना (Observational Design) – इसमें उन दशाओं के बारे में पूर्व निर्णय लिया जाता है जिनके अन्तर्गत अवलोकन किया जाना है अथवा अन्य किसी प्रविधि द्वारा सामग्री संकलित की जानी है।

3. सांख्यिकीय प्ररचना (Statistical Design) – इसका सम्बन्ध संकलित सामग्री के सांख्यिकीय विश्लेषण से है अर्थात यह पूर्व निर्णय लेने से है कि सामग्री के विश्लेषण हेतु किन-किन सांख्यिकीय प्रविधियों का प्रयोग किया जायेगा।

4. संचालन प्ररचना (Operational Design)- इसका सम्बन्ध उन प्रविधियों के बारे में पूर्व निर्णय लेने से है। जिनके द्वारा उपर्युक्त तीनों प्ररचनाओं अर्थात निदर्शन प्ररचना अवलोकनात्मक प्ररचना तथा सांख्यिकीय प्ररचना सम्बन्धी कार्यप्रणालियों को लागू किया जाना है। संचालन प्ररचना द्वारा ही अन्य तीनो प्ररचनाओं में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया जाता है।

समानान्तर अर्थव्यवस्था का अर्थ | समानान्तर अर्थव्यवस्था के कारण | समानान्तर अर्थव्यवस्था के प्रभाव

अतः विद्वानों ने अनुसंधान प्ररचना के कुछ विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किया है जोकि निम्नलिखित हैं-

अनुसंधान प्ररचना के प्रकार (Types of Research Design)

अनुसन्धान प्ररचना के प्रकार अनुसन्धान प्ररचना या अनुसन्धान अभिकल्प को चार भागों में विभाजित किया गया है-

1. अन्वेषणात्मक अथवा निरूपणात्मक अनुसंधान अभिकल्प या प्ररचना

जब किसी अनुसन्धान कार्य का उद्देश्य किन्ही सामाजिक घटनाओं में अन्तर्निहित कारणों को ढूंढ निकालना होता है तो उससे सम्बन्धित रूपरेखा को अन्वेषणात्मक अनुसन्धान अभिकल्प कहते हैं। इस प्रकार के अनुसंधान अभिकल्प में शोध कार्य की रूपरेखा इस तरीके से प्रस्तुत की जाती है कि घटना की प्रकृति व धारा प्रवाहों की वास्तविकताओं की खोज की जा सके। विषय अथवा समस्या के चुनाव के पश्चात् प्राक्कल्पना का 5 सफलतापूर्वक निर्माण करने के लिए इस प्रकार के अभिकल्प का अत्यधिक महत्व है क्योंकि इसकी सहायता से हमारे लिए विषय का कार्य-कारण सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि हमें किसी विशेष सामाजिक परिस्थिति में विवाह-विच्छेद प्राप्त व्यक्तियों में व्याप्त यौन व्यभिचार के विषय में अध्ययन करना है, तो उसके लिए सर्वप्रथम उन कारकों का ज्ञान आवश्यक है जो कि उस प्रकार के व्यभिचार को पैदा करते हैं। अन्वेषणात्मक अनुसन्धान अभिकल्प इन्ही कारणों को खोज निकालने की एक योजना बन सकती है। इसी तरह से कभी-कभी समस्या के चुनाव तथा अनुसन्धान कार्य के लिए उसकी उपयुक्तता के सम्बन्ध में हमें अन्य किसी स्रोत से ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता है, तब उस अवस्था में अन्वेषणात्मक अनुसन्धान अभिकल्प की सहायता से हमें बहुत सहायता मिल सकती है। इस प्रकार की अनुसन्धान अभिकल्प की सफलता के लिए कुछ अनिवार्यताओं का पालन करना होता है जो निम्नलिखित है-

(अ) सम्बद्ध साहित्य का अध्ययन

(ब) अनुभव सर्वेक्षण

(स) अन्तर्दृष्टि प्रेरक घटनाओं का विश्लेषण।

  • भारत में काले धन या काले धन की समस्या का अर्थ, कारण, प्रभाव या दोष

2. वर्णनात्मक अनुसन्धान अभिकल्प

विषय या समस्या के सम्बन्ध में सम्पूर्ण वास्तविक तथ्यों के आधार पर उनका विस्तृत वर्णन करना ही वर्णनात्मक अनुसन्धान अभिकल्प का प्रमुख उद्देश्य है। इस पद्धति में आवश्यक है कि हमें वास्तविक तथ्य प्राप्त हो तभी हम उसकी वैज्ञानिक विवेचना करने में सफल हो सकते हैं। यदि समाज की किसी समस्या का विवरण देना है, तो उस समस्या के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित तथ्य प्राप्त होने चाहिए, जैसे निम्न श्रेणी के परिवारों का विवरण देना है, तो उसकी आयु, सदस्यों की संख्या, शिक्षा का स्तर व्यावसायिक ढाँचा, जातीय और पारिवारिक संरचना आदि से सम्बन्धित तथ्य, जब तक प्राप्त नहीं होते तब तक हम उसके वास्तविक स्वरूप को प्रस्तुत नहीं कर सकते। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हम अपना अनुसंधान अभिकल्प विषय के उद्देश्य के अनुसार बनायें।

3. परीक्षणात्मक अनुसन्धान अभिकल्प

भौतिक विज्ञानों की तरह समाजशास्त्र भी अपने अनुसन्धान कार्यों में परीक्षण प्रणाली का उपयोग कर अधिकाधिक यथार्थता लाने का प्रयत्न कर रहा है। भौतिक विज्ञानों में जिस तरह कुछ नियन्त्रित अवस्थाओं में रखकर विषय का अध्ययन किया जाता है, उसी में प्रकार नियन्त्रित दशाओं में रखकर निरीक्षण परीक्षण के द्वारा सामाजिक घटनाओं का व्यवस्थित अध्ययन करने रूपरेखा को परीक्षणात्मक अनुसन्धान अभिकल्प कहते हैं।

4. निदानात्मक अनुसन्धान अभिकल्प / प्ररचना

अनुसन्धान कार्य का मूलभूत उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति एवं ज्ञान की वृद्धि करना है। किन्तु यह भी सम्भव है कि अनुसन्धान कार्य का उद्देश्य किसी समस्या के कारणों के सम्बन्ध में वास्तविक ज्ञान प्राप्त करके उस समस्या के समाधानों को भी प्रस्तुत करना हो। इस प्रकार के अनुसन्धान अभिकल्प को निदानात्मक अनुसन्धान अभिकल्प / प्ररचना कहते हैं। दूसरे शब्दों में में, विशिष्ट सामाजिक समस्या के निदान की खोज करने वाले अनुसन्धान कार्य को, निदानात्मक अनुसन्धान कहते हैं।

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Do We Need a New Hypothesis for K ATP Closure in β-Cells? Distinguishing the Baby From the Bathwater

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Leslie Sherwin Satin , Jeremías Corradi , Arthur Stewart Sherman; Do We Need a New Hypothesis for K ATP Closure in β-Cells? Distinguishing the Baby From the Bathwater. Diabetes 2024; db240131. https://doi.org/10.2337/db24-0131

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